पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९३९

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(१८२०) योगवासिष्ठ । जैसे फूलनसों सुगंधि लेकर पवन है अपने स्थानको चला जाता है, अरु फूलनसाथ तिसका प्रयोजन नहीं रहता, तैसे इस देहविषे जो कछु सार था, सो मैं,पायकारे अपने आपविषे स्थित हौं, शरीरसाथ भी सुझको प्रयोजन नहीं रहा, अब 'राज्य भोगनेकरि कछु सुखदुःख नहीं, इंद्रियके इष्ट अनिष्टविषे मुझको हर्ष शोक कोऊ नहीं, मैं अव सवैते उत्तम पदको प्राप्त भया हौं, सर्व कलनाते रहित हौं, अविनाशी अव्यक्तरूप सर्वते निरंतर सदा अपने आपविषे स्थित हैं, निराकार निर्विकार हैं, जो कछु पाने योग्य था, सो पाया है, जो कछु सुनने योग्य था, सो सुना है, जो कछु। तुम्हारे कहना था, सो कहा है, अब तुम्हारी वाणी सफल भई है,जैसे कोऊ रोगीको औषध देता है, तिस औषधसाथ उसका रोग जाता है, अरु उसका कल्याण होता है, तैसे तुम्हारी वाणीकार मेरा संशयरूप रोग गया है। अरु अपने आपकार तृप्त भया हौं, अब मैं निःशंक होकर अपने आपवित्रे स्थित हौं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे,निर्वाणप्रकरणे निर्वाणिवर्णनै नाम द्विशताधिकाशीतितमः सर्गः ॥२८० ॥ द्विशताधिकैकाशीतितमः सर्गः २८१. चिदाकाशजगदेकताप्रतिपादनम् । • वसिष्ठ उवाच॥ हे महाबाहो रामजी ! तू मेरे परम वचन सुन, हंढे अभ्यासके निमित्त कहता हौं, जैसे आदर्शको ज्यों ज्यों मार्जन करता है। त्यों त्यों उज्वल होता है, तैसे वारंवार श्रवणकर अभ्यास दृढ़ होता है, अरु जेता कछु जगत् भासता है, सो सब चिदानंदस्वरूप है, भासती भी सोई वस्तु है, जो आगे भानरूप होती है सो भानरूप चेतन है, ताते जो पदार्थ भासते हैं, सो सव चेतनरूप हैं, अरु जो भिन्न भिन्न पदार्थ भासते हैं, सो द्वैतकी कल्पनाते भासते हैं, वास्तवते भानरूप चेतन है, जैसे जो उच्चार करता है, सो सब शब्द हैं, शब्दरूप एक है, अरु अर्थकरि भिन्न भिन्न भासते हैं, जब अर्थकी कल्पना त्यागि दीजै, तब यही शब्द है, अरु