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योगवासिष्ठ।

बुद्धिकी अर्चना है, जो तुमसारखे हैं, तिनको यही पूजा है, जो तुमको सर्वआत्मभावनाकरि कही है॥ हे मुनीश्वर! हमारे मतविषे तौ अपर देव कोई नहीं एकही परमात्मा देव तीनों भुवनविषहै तिसते अपर देव कोई नहीं, सो शिव है, अरु सर्व पदते अतीत है, सर्व संकल्पते उल्लंघन वर्तता है, अरु सर्व संकल्पका अधिष्ठान वही है, अरु देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित है, सर्व प्रकार शांतरूप है, एक चिन्मात्र निर्मल स्वरूप है, तिसको देवकरि कहते हैं॥ हे मुनीश्वर! जो संवित‍्सत्ता पंचभूतकलाते अतीत है, अरु सर्व भावके अंतर वही स्थित है, अरु सर्वको सत्ता देनेहारा देव है, अरु सर्वकी सत्ता हरनेहारा भी वही है॥ हे ब्राह्मण! जो ब्रह्म सत्य असत्यके मध्य अरु असत्य सत्यके पर कहाता है, सो देव परमात्मा हैं, परम स्वतः सत्ता स्वभावकरिकै सबको प्राप्त भया है, अरु महाचित्त करिकै कहाता है, सो परमात्मा देव सत्ता है, ऐसे सर्व विषे स्थित है, जैसे सर्व वृक्षकी लताके अंतर रस जल स्थित है, तैसे सत्ता समानरूप करिकै परमचेतन आत्मा सर्व ओर स्थित है, जो चेतनतत्त्व अरुंधतीका है, अरु जो चेतनतत्त्व तुझ निष्पापका है, अरु जो चेतनतत्त्व पार्वतीका है, सोई चेतनतत्त्व मेरा है, सोई चेतनतत्त्व जगत् त्रिलोकीका है, सो देव है, अपर देव कोई नहीं, अरु जो अपर हस्तपादसंयुक्त देव कल्पते हैं, सो भी चिन्मात्र सार कछु नहीं, चिन्मात्रही सर्व जगस्का सारभूत है, सोई अर्चना करने योग्य है, तिसीते सब फलकी प्राप्ति होती है, सो देव कहूँ दूर स्थित नहीं, अरु किसी प्रकार किसीको प्राप्त होना भी कठिन नहीं, सर्वकी देहविषे स्थित है, अरु सर्वका आत्मा है, सो दूर कैसे होवै, अरु कठिनतासों प्राप्त कैसे होवै, सब क्रिया वही करता है, भोजन भी वही करता है, भरण पोषण भी वही करता है, वही श्वास लेता है, सबका ज्ञाता वही है, पुर्यष्टकाविषेप्रतिबिंबित होकरि प्रकाशता वही है, जैसे पर्वतके ऊपर चरअचरकी चेष्टा होती है, चलते बैठते स्थित होते हैं, सो सबका आधारभूत पर्वत है, तैसे मनसहित षटू इंद्रियोंकी चेष्टा आत्माके आश्रय होती है, तिस