पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२५

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( १८०६) थौगवासिङ । विशेष ऐश्वर्य प्राप्त भया, सो लकडी उठावनेके यत्नते रहित भये, बहुरि अपरस्थान ढूंढने लगे, जो रत्नते भी विशेष कछु पाइये, सो वनकी पृथ्वीको खोदते खोदते कोई चिंतामणिको प्राप्त भये,वह बडे ऐश्वर्यको प्राप्त भये, जैसे ब्रह्मा इंद्रादिक हैं, तैसे होत भये । हे रामजी ! जिनने उद्यमकारकै वनकी सेवना करी तिनको बडा सुख प्राप्त भया, जो लकडियां उठावते रहे, तिनकी उदरपूर्तिही भई, अरु दुःख निवृत्त न भया, अरु जिनको चंदनकी लकडियां प्राप्त भई, तिनके उदर पूर्णताते अपर भी संताप मिटे, अरु जिनको चिंतामणि प्राप्त भई, तिनके सर्वसंताप मिटि गये, वह परम ऐश्वर्यवान भये, परंतु सबको बनसों प्राप्त भया, अरु जो वनके निकट उद्यमकर न गये, घरही बैठे रहे, सो दुःखित होकार प्राणोंको त्यागते भये, परंतु सुख न पाया॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे चिंतामणिप्राप्तिनम द्विशताधिकसप्तसप्ततितमः सर्गः ॥२७७ ॥ द्विशताधिकाष्टसप्ततितमः सर्गः २७८. गुरुशास्त्रोपमावर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह जो तुम कीटकका वृत्तांत कहा सो इसका तात्पर्य मैं कछु न जाना, वह कीट कौन थेअरु बन क्या था,अरु आपदा क्या थी सो कृपाकर प्रगट कहौ।।वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी । जेते कछु जीव देखता है सो सब कीट हैं, तिनको अज्ञानरूपी आपदा लगी हैं, आध्यात्मिक आधिभौतिक आधिदैविक जो तीनों ताप हैं, आध्यात्मिक कामक्रोधादिक मानसी दुःख हैं,आधिभौतिक देहके वात पित्त कफ आदिक दुःख हैं,अरु आधिदैविक जो गृहतेदुःख अनिच्छित आनि प्राप्त होता हैं, तीन तापकी चिताकार जलते हैं । हे रामजी । तिनविष प्रयत्न करिकै शास्त्ररूपी वनविषे गये हैं, सो सुखी भये हैं,जो अर्थी सुखके निमित्त शास्त्ररूपी वनको सेवते भये, तिनको सवधर्मरूपी लकड़ियां प्राप्त भई तिन कार जो नरकरूपी उदरपूर्तिका दुःख था सो निवृत्त भया,अरु स्वर्गरूपी सुख पाते भये, बद्वारे शास्त्ररूपी वनको सेवतेसेवते उपासनारूपी चंदन वृक्ष