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रामविश्रांतिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७९७) जाता है, जैसे स्थाणुविषे भ्रमकारकै पुरुष भासता हैं, तैसे आत्माविषे अविद्यारूप जगत् भ्रमकार भासता हैं, जैसे आकाशके फूल अरु शशेके शृंग कछु वस्तु नहीं, तैसे अविद्या भी कछु नहीं, जैसे वंध्याका पुत्र भासै तौभी भ्रममात्र जनाता है,जैसे स्वप्नविषे अपने मरणेका अनुभव होवै तौभी भ्रममात्र हैं, तैसे अविद्यारूप जगत् भासता है तो भी असव हैं, प्रमाणरूप नहीं, प्रमाण कहिये जो यथार्थ ज्ञानका साधक होवै सो यह जो प्रत्यक्ष प्रमाण है सो यथार्थ करता नहीं;काहेते जो वस्तुरूप आत्मा हैं, सो ज्योंका त्यों नहीं भासता, विपर्यय जगरूप भासताहै, सीपविषे रौप्यवत्, ताते यह प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है, तो भी असवरूप हैं, प्रमाण क्यों कर जानना॥हे भगवन्। यह जगत् अपर कछु वस्तु नहीं, केवल कल्पनामात्र हैं,जैसे जैसे आत्माविषे संकल्प दृढ होता है, जैसे तैसे जगत् भासता है। अरु जो कोङ पुरुष स्वर्गविषे बैठा होवे, तिसके हृदयविषे कोऊ चिंता उपजी तब उसको स्वर्ग भी नरकरूप हो जाता है, काहेते कि, भावना नरककी हो जाती हैं । हे भगवन् । यह जगत् केवल वासनामात्र है; आत्माविषे जगत कछु आरंभ पारणामकारके बना नहीं, यह जगत् चित्तविषे हैं, जैसे पत्थरकी शिलाविषे शिल्पी पुतलियां कल्पता है, सो जैसी कल्पते तैसे ही भासता है, शिलाते इतर कछु नहीं, तैसे आत्माविषे चित्तने जगत् पदार्थ रचे हैं, जैसे जैसे भावना करता है, जैसे तैसे यह भासता हैं, अरु आत्माविष जगत् न कछु हुआ है, न आगे होना, केवल अपने आपविषे आत्मसत्ता स्थित है, स्वच्छ है, अद्वैत अरु परम मौनरूप है, द्वैत एक कल्पनाते रहित है, परस मुनीश्वर कारकै सेवने योग्य है, ऐसा जो पद है, सो मैं पाया हौं, अपने आपविष स्थित हौं, सर्व दुःखते रहित हौं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे रामविश्रतिवर्णनं नाम द्विशताधिकत्रिसप्ततितमः सर्गः ॥ २७३ ॥ +---- -