पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९१०

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विद्यावादबौधोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ३ (१७९१) कछु उपजा नहीं, परंतु चैत्यका ऊरणा भ्रम कैसे हुआ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! कारणके अभावते सर्वत्र शाँतिरूप है, भ्रम भी कछु अपर वस्तु नहीं, जबलग आत्मपदविषे अभ्यास नहीं, तबलग भ्रम भासता है, अरु शांति नहीं प्राप्त होती, अभ्यास करिकै केवल तत्वविर्षे विश्रांति पावैगा, तब भ्रम मिटि जावैगा ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । अभ्यास कैसे होता है अरु अनभ्यास कैसे होता है, एक अद्वैतविषे अभ्यास, अनभ्यास कैसे भ्रांति होती है । वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! अनंत तत्त्वविषे शांति भी कछु नहीं, जो आभास शांति भासता है, सो महाचिङ्घन अविनाशरूप है ॥ राम उवाच ॥ हे ब्राह्मण ! उपदेश अरु उपदेशके अधिकारी यह जो भिन्न भिन्न शब्द हैं, सो सर्व आत्माविषे कैसे भासते हैं । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! उपदेश अरु उपदेशके योग्य यह शब्द भी ब्रह्मही विषे स्थित हैं, शुद्ध बोधविषे बैध मोक्ष दोनोंका अभाव है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जो आदि उत्पत्ति कुछ हुआ नहीं तौ देश काल क्रिया द्रव्य इनके भेद कैसे भासते हैं । वसिष्ठ उवाच ॥ है रामजी! देश काल, क्रिया, द्रव्य, यह जो भेद, हैं सो संवेदन दृश्यविषे हैं, सो अज्ञानमात्र भासते हैं, अज्ञानमात्रते इतर कछु नहीं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् | बोधको दृश्यकी प्राप्ति कैसे हुई, जहाँ द्वैत एकता कारणका अभाव है, तहाँ दृश्य भ्रम कैसे है १ ॥ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ है रामजी ! बोधको दृश्यप्राप्ति अरु द्वैत एकका भ्रम मूर्खका विषय है, हमसारखेका विषय नहीं ॥ ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जो अंततत्त्व केवल बोधरूप है, तो अहं त्वं हमारेविषे कैसे होता है ? ॥ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी। शुद्धबोधसत्ताविषे जो बोधका जानना है, सो अहं त्वं कार कहता है। जैसेपवनविषे फुरणा है, तैसे तिसविषे चेतता फुरती है ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् । जैसे निर्मल अचल समुद्रविषे तरंग बुदे होते हैं, सो जलते इतर कछु नहीं तैसे बोधविषे बोधसत्ताते इतर कछु नहीं, अपने आपविणे स्थित हैं । वसिष्ठउवाच ।। हे रामजी । जो ऐसे हैं, तो किसका किसको दुःख होवे, एक अनंततत्त्व अपने आपवित्रे स्थित है, अरु पूर्ण है ॥ राम