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ईश्वरोपाख्याने जगत्परमात्मरूपवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

वर्तमान तीनों कालके ईश्वर, अरु सर्व कारणके कारण, तुम्हारे प्रसाद करिकै मैं कछु पूछनेको समर्थ हुआ हौं॥ हे महादेव! जो कछु मैं पूछता हौं, सो प्रसन्नबुद्धि होकरि तत्त्वते शीघ्रही उद्वेगको त्यागिकरि कहौ॥ हे सर्वपापके नाशकरनेहारे, अरु सर्व कल्याणकी वृद्धि करनेहारे! देव अर्चनका विधान मुझको कहौ॥ ईश्वर उवाच॥ हे ब्राह्मण! उत्तमजो देवअर्चन है, जिसके कियेते संसारसमुद्रको तरि जाइये, सो सुन॥ हे ब्राह्मणविषे श्रेष्ठ! पुंडरीकाक्ष जो विष्णु है, सो देव नहीं, अरु त्रिलोचन जो शिव है, सो भी देव नहीं कमलते उपजा जो ब्रह्मा है, सो भी देव नहीं, अरु सहस्रनेत्र इंद्र भी देव नहीं न देव पवन है, न सूर्य है, न अग्नि है, न चंद्रमा है, न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न तू, न मैं हौं, न देह हैं, न चित्त है, न कलनारूप है, अकृत्रिम अनादिअनंत संवित‍्‍रूप देव कहाता है, अपर आकारादिक परिच्छिन्नरूप हैं, सो वास्तवते कछु नहीं. एक अकृत्रिम अनादि अनंत चेतनरूप देव है, सो देव शब्दकरि कहाता है, तिसकाजो पूजन है; सोई पूजन है, तिस देवको सर्वत्र जानना जिसते यह सर्व हुआ है, जो सत्ता शांत आत्मरूप है, सर्व ठौरविषे तिसको देखना यही उसका पूजन है, अरु जो तिस संविततत्त्वको नहीं जानते, तिनको आकारकी अर्चना कहींहै, जैसे जो पुरुष योजनपर्यंत नहीं चलि सकता, तिसको एक कोशका दो कोशका चलना भी भला है, तैसे जो पुरुष अकृत्रिम देवकी पूजानहीं करि सकता, तिसको आकारका पूजना भी भला है॥ हे ब्राह्मण! जिसकी भावना कोऊ करता है, तिसके फलको तिसी अनुसार भोगता है, जो प्रच्छनकी उपासना करता है, तिसको फल भी प्रच्छन प्राप्त होता है, अरु जो अकृत्रिम आनंद अनन्त देवकी उपासना करताहै, तिसको वही परमात्मरूपी फल प्राप्त होता है॥ हे साधों! अकृत्रिम फलको त्यागिकरि कृत्रिमको चाहते हैं, सो क्या करते हैं, जैसे कोऊ मंदार वृक्षके वनको त्यागिकरि करंजुएके वनको प्राप्त हो, तैसे वह करते हैं, सो देव कैसा है, अरु उसकी पूजा क्या है, अरु क्यों करि होती है. सो सुन, तीन फूल हैं, तिन फूलनसे तिसकी पूजा होती है, एक बोध १, एक साम्य २, एक शम ३, यह तीनों पुष्प हैं, बोध नाम