पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

= == सर्वब्रह्मप्रतिपादनवर्णन–निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७७७) आया तब उसका पिताही उपजा नहीं तौ पुत्र कैसे कहिये, सब अपना आपही हो जाता है, न कोऊ कारण भासता है, नकार्य भासता है, अरु जो स्वप्नविषे सोया है, तिसको जैसे भासता है, तैसेही भासता है, जैसे वर अरु शापका आश्रय संकल्प है; संकल्पही वरशाहोभासताहै, कारण भी होता है, अरु जिसको शुद्ध संवेदनसाथ एकता भई है सो निरावरण है, तिसविणे जैसे फ़रणा आभास फुरता है, तैलाही सिद्ध होताहै ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । एक ऐसे हैं, जिनको आवरण है, अरु उनका संकल्प जैसे फुरती है, वर देवै अथवाशाप देवै, तैसेही हो जाता है, अरु स्वरूपका साक्षात्कार उनको नहीं भया, अरु शुभ कर्म उनविषे प्रत्यक्ष पाते हैं, तो शुद्ध कर्महीं कारण भये, वर शापके तुम कैसे कहते हौ, जो निरावरण पुरुषका संकल्प सिद्ध होता है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! शुद्ध चिन्मात्रजो सत्ता है सोई चित्तधातु कहाती हैं, तिस चित्तधातुविषे जो आभास ऊरणा है, जो संवेदन कहाती है, सो संवेदन जब फ़रती है तब जानाजाता है कि, मैं ब्रह्म हौं, तौ संवेदनही आपको जगत्का पितामह जानत भई क्यों ? तिसीने आगे मनोराज्य कल्पा, तब पंचभूतके जानना हुआ, जो शून्यरूप आकाश हुआ. स्पंदरूप वायु है, उष्णरूप अग्नि हैं, द्वतारूप जल है, कठोररूप पृथ्वी है, बहुरि देश अरु कालकी कल्पना भई, स्थावर जंगम पदार्थकी कल्पनाकार वेद शास्त्र धर्म अधर्मका फुरणा हुआ, तिसविषे यह निश्चय हुआ कि, यह तपस्वी है, इसने तप किया है, इसके कहेते वर होवे, अरु जो कछु कहै सो होवै, स्वरूपके साक्षात्कारते रहित है, तो भी इसका कहा होवे, यह तपका फल हैं, आदि संकल्प ऐसे हुआ है, तौ वर शापका कर्ता तपस्वी नहीं इसका अधिष्ठान वही संवेदन है, जिसते आदि संकल्प फुरा है ॥ हे रामजी ! बर अरु शाप संकल्परूप हैं, संकल्प संवेदन ते फुरा है, संवेदन आत्माका आभास है, तो मैं कारण अरु कार्य क्या कहौं, अरु जगत् क्या कहौं, आत्माका आभास संवेदन ब्रह्मा है, तिसने आगे संकल्पपूर सृष्टि रची है, हम तुम आदिक सब उसके संकल्पविषे हैं, सो ब्रह्माजी कैसा है, निराकार अरु निराधार है, निरालंब स्थित है, कछु आकारको नहीं