पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८७

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( १७६८) योगवासिष्ठ । है, जैसे एकही निद्राके दो पर्याय हैं, स्वप्न भी अरु सुषुप्ति भी, तैसे जगत् अरु आत्मा दोनों एकही सत्ताके पर्याय हैं, जैसे एकही वायु स्पंद अरु निस्पंद दो रूप होती है, तैसे आत्मसत्ताके दोनों रूप हैं, जब संवेदन जो है जानना सोनहीं फुरता, तब अग्निवाची रूप होती है, अरु जब अहं इस भावको लेकर फुरती है, तब संकल्परूपी सृष्टि बन जाती है, आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी तत्त्व भास आते हैं, नक्षत्रचक्र देवता मनुष्य पशु पक्षी जलका नीचे चलना, अग्निका ऊध्र्व चलना, तारागण प्रकाशवान्, पृथ्वी स्थिरीभूत इनते आदि लेकर जो स्थावरजंगम रूप सृष्टि है सो अपने स्वभावसहित भासती आती है, शुभअशुभ कर्म होते हैं, तिसविषे सुख दुःख, फलकी नेति होती है, सो क्या है, आत्मसत्ताहीं इसप्रकार भासती हैं, जैसे तू मनोराज्यकारकै स्वन्ननगर कप लेवे, तिसविषे अनेक प्रकारकी चेष्टा होवे, सो जबलग संकल्प होवे तबलग वही सृष्टि स्थित होती है, जब संकल्प मिटि गया, तब सृष्टि लय हो जाती है, तौ वस्तु कछु न भई, तेरा अनुभवही सृष्टिरूप होकार स्थित भया, तैसे यह जगत् अनुभवरूप है, अपर कछु नहीं ॥ कुदर्दत उवाच ॥ हे रामजी ! संकल्प जो फुरता है, सो पूर्व स्मृतिको लेकर फुरता है, ब्रह्मविषे जो मनोराज्य संकल्पकी सृष्टि उत्पन्न होती है, सो किसी संसारको लेकर फुरती है, यह संशय मेरा निवृत्त करौ ॥ कदंबतया उवाच ॥ हे साधो ! यह संपूर्ण सृष्टि किसी संस्कारते नहीं उत्पन्न भई, भ्रमकरिकै भासती है, जैसे स्वप्नविषे आपको मृतक हुआ जानता है, सो उसको पूर्वले संस्कारकी स्मृति तौ नहीं होती, अपूर्वही भास आती है, तैसे यह पदार्थ जो तुझको भासते हैं, सो अपूर्व हैं, किसी स्मृतिकार नहीं भये, स्मृति अनुभवतौ जगतहीविषे उत्पन्न भये हैं, जब जगत्का ऊरणा न फुरा था तब स्मृति अनुभेज भी न थे, जब जगत् फुरा तब यह भी फुरा है, ताते संपूर्ण जगत् अधूर्व है, भ्रमकारकै भासता है, जैसे स्वप्नविषे मुआ किसी कुलविषे अपना जन्म देखै, अरु उसका कुल चिरकालका चला आता है, ऐसे भासै अरु जब ज़ागि उठा, तब पूर्व किसको कहै, स्मृति किसकी करे,