पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८१

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(१७६२) योगवासिष्ठ । संकल्पकार वरका कर्ता देवता है, जो मैं वर दिया है, अरु ग्रहण करने वाला जानता है कि, मैंने वर लिया है । हे ईश्वर ! उसका जो वररूप संकल्प है,उसके निश्चयविषे दृढ होता जाता है,जिस संकल्पकी संवित् साथ एकता होती है, बहुरि वही प्रगट होता है, इसीप्रकार शाप भी है तो क्या है, न कोऊ वर है, नशाप है, दोनों संकल्परूप हैं, जैसा संकल्प अनु भव आकाशविषे दृढ होता है, सोई भासता है, वर देनेवाला भी अनुभव सत्ता है, अरू लेनेवाला भी आत्मसत्ता है वही सत्ता वररूप होकार स्थित होती वही सत्ताशापरूप होकार स्थित होती हैं, जिस संकल्पकी दृढता होती है, तिसीका अनुभव होता हैं। हे स्वामी।यह तुमसों सुनाहुआ हम कहते हैं, कि बाह्य कर्म कोऊ इसको फलदायक नहीं होता, जो कछु उसके अंतर सार होता है,सोई फल होता है,इनके अंतर तौ वरका संकल्प दृढ़ है, हमारा है नहीं, ताते हमारा तुमको नमस्कार है, अब हम जाते हैं । हे कुंददंत ! इसप्रकार करिकै शाप आधिभौतिकशरीर त्यागिकार अंतवाहक शरीरसाथ अंतर्धान हो जायँगे, जैसे आकाशविषे भ्रमकारकै तरवरे भारौं, अरु सम्यकू ज्ञानकार अंतर्धान हो जावें, तैसे शाप अंतर्धान हो जावेंगे तब ब्रह्माजी कहूँगा ॥ हे वरो 1 तुम शीघ्रही उन पास जावहु, तब वह वर बार पूछैगा, अरु दूसरा वर जो उनकी स्त्रियोंने लिया था, जो उनकी पुर्यष्टका अंतःपुरविषे रहै, ताते ॥ हे भगवन् ! हमको क्या : आज्ञा हैं, हमको तौ उनको उसी मंदिरविषे रखना है,अरु उनको सप्तद्वीप पृथ्वीका राज्यभी भोगना है, अरु दिग्विजय करना है, यह कैसे होवैगा, तब ब्रह्माजी कहेगा ॥ हे साधो ! यह क्या है, जो सप्तद्वीपकी पृथ्वीका राज्य करना है, उनका तुम्हारेसाथ विरोध कछु नहीं, तुमको उसी मंदिरविषे उनकी पुर्यष्टका रखनी हैं, अरु वहाँही राज्य भुगावना अपना जो कछु तुम्हारा स्वभाव है सो करना ॥ कुंददेत उवाच ॥ हे भगवन् ! इसकार तो हमको बडा संशय उत्पन्न हुआ है, उसी मंदिर विषे आठौं भाई सप्तद्वीप पृथ्वीका राज्य कैसे करेंगे, एती पृथ्वी उस मंदिरविषे क्योंकार समावैगी,यह आश्चर्य है, जैसे कमलफूलकी ड्रोड़ी विषे को कहे, हस्ती शयन करे, अरु हस्तीकी पंक्ति उसीविषे है, सो