पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८६८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

इंद्राख्यानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७४९) कछु नहीं, जो कछु पदार्थ भासते हैं, पाषाण वृक्ष जड़ चेतन सो सब ब्रह्मस्वरूप हैं, उसते इतर कछु नहीं । हे रामजी ! महाभूत जो हैं अरु वृक्ष पृथ्वी आकाश पहाड यह सब चिदाकाशरूप हैं, चिदाकाशते इतर कछु नहीं, जैसे इंद्रके पुत्र एकते अनेक हो गये, तैसे यह सृष्टि भी एकते अनेक है, अरु प्रलयविषे अनेकते एक हो जाती है, जैसे एक तू स्वप्न विषे अनेक हो जाता है, अरु सुषुप्तिविषे अनेकते एक हो जाता है, तैसे यह जगत् है, कैसा है, अकारणरूप है, अरु जो कारण भी मानिये तौ आत्मरूपी कुलाल है, संकल्प चक्र है, अरु अनुभव चेतनरूपी घट तिसते उपजते हैं, आभास भी वही है, कछु दूसरी वस्तु नहीं, यह सब जगत् वही रूप है, जैसे इंद्र ब्राह्मणके पुत्रको अपने अनुभवहीते सृष्टि फ़ार-आई, सो अनुभवरूपी भासने लगा, अपर सृष्टिते कछु न भई, तैसे यह सृष्टि भी जान ॥ हे रामजी ! घट भी चैतन्य हैं, वृक्ष भी चैतन्य है, पृथ्वी भी चैतन्य है, जल अग्नि वायु सब चैतन्यरूप हैं, चैतन्यते इतर कछु नहीं, जैसे स्वप्नविषे अपना अनुभवही घट पहाड नदियाँ पदार्थ हो भासते हैं, अनुभवते इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत् अनुभवते इतर नहीं, ज्ञानीको सदा यही निश्चय रहता है, अब एक अनेककाउत्तर सुन ॥ हे रामजी । जैसे मनोराज्यविषे एकते अनेक हो जाता है, अरु अनेकते एक हो जाता हैं, चैतन्यते जड़ हो जाता है, सो जड़ कोऊ पदार्थ नहीं भासता, पदार्थ चैतन्यरूप हैं, जहाँ अंतःकरण प्रगट पाता है, सो चेतन भासता है, जहां अंतःकरण नहीं पाता, सो जड़ भासता है, चैतन्यका आभास अंतःकरणविषे पाता है, जब पुर्यष्टका निकस जाती है, तब जड भासता है, यह अज्ञानीकी दृष्टि कही है, अरु मुझको पूछे तो जिसको जड कहते हैं, अरु जिसको चेतन कहते हैं, पहाड वृक्ष पृथ्वी कहते हैं, सो सब ब्रह्मरूप हैं, ब्रह्मते इतर कछु नहीं, जैसे स्वप्नविषे कई जड भासते हैं, कई चेतन भासते हैं, नानाप्रकारके पदार्थ भिन्न भिन्न भासते हैं, सो आत्मरूप हैं, इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत् सब आत्मरूप है, इच्छा अनिच्छा सुब ब्रह्मरूप है, सब नामरूप आत्माके