पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५३

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त हैं जैसे समुनहीं, अरु जो करती है, जो ( १७३४) योगवासिष्ठ । ईश्वर जो परमात्मा है, तिसविषे जगत् इसप्रकार है, जैसे समुद्वविचे तरंग होते हैं जैसे समुद्र अरु तरंगविषे भेद कछु नहीं, तैसे आत्मा अरु जगतविषे भेद कछु नहीं, अरु जो तू कहै अविद्याही जगत्का कारण होवै, तौ अविद्या जगत्का कारण कहाती है, जो अगत्ते प्रथम सिद्ध होती है, सो अविद्या तौ अविद्यमान है, जैसे परमात्माविषे जगत् अभासमात्र है, तैसे अविद्या भी आभासमात्र है, जो आपही आभासमात्र होवै, सो जगत्का कारण कैसे कहिये जगत्को आभास अरु अविद्याका आभास इकट्ठाही फुरा है, जैसे स्वप्नविषे सृष्टि भासि आती है, तिसविषे चटपटादिक पदार्थ भासते हैं, सो किसी कुलालने मृत्तिका लेकर तो नहीं बनाये, जैसे घट भासा है,तैसे कुलाल अरु मृत्तिका भी भास आये, सबका भासना इकट्ठाही होता है, तैसे जगत् अरु अविद्या इछडेही फुरे हैं, अविद्या पूर्व तौ सिद्ध नहीं होती, तौ अविछाको जगतका कारण कैसे मानिये ॥हे रामजी परमात्माते जगअरु अविद्या इकट्ठाही आभास फुरा है, सो अभासकछु वस्तु नहीं, ब्रह्मसत्ता अपने आपविरें स्थित है, न कहूँ अविद्या है, न जगत् है, सदा ज्योंकी क्यों आत्मसत्ता स्थित है । हे रामजी! निर्विकल्पविषे जगत्का अत्यंत अभाव होता हैं, सो निर्विकल्प कैसे होवै, जो निर्विकल्प होता है, तब जडता आती हैं, अरु जब विकल्प उठता है, तब संसार उदय होताहै, अझै जब ध्यान लगाता हैं, तब ध्याता ध्यान ध्येय त्रिपुटी हो जाती है, इसमकार तौ निर्विकल्पता सिद्ध नहीं होती, काहेते कि निर्विकल्पविषे भी स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती, निर्विकल्प तिसका नाम है, जहां चित्तकी वृत्ति न फुरै, तौ तब भी स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती, काहेते कि, तहाँभी अभाववृत्ति सुषुप्तिवत् रहतीहै;वह जडात्मक सुषुप्तिरूप है,अरु सविकल्प सुषुप्ति है, तिसकेविप भी स्वरूपकी प्राप्तिनहीं होती,ताते सम्यक्बोधका नाम निर्विकल्प है, सम्यक्बोध निर्विकल्पताकरिकै जगत्का अत्यंत अभाव जिसको भया है, सो जीवन्मुक्त है, वही निर्विकल्प कहता है; अरु वही परम जडता है, जहाँ जगतका परम असंभव है ॥ हे रामजी। यह जो निर्विकल्प अरु सविकल्प हैं, तिसकरि स्वरूपकी प्राप्ति नहीं