पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५१

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( १७३२) योगवासिष्ठ । परंतु सबही समुद्रके आश्रय हैं, अरु वही रूप हैं, तैसे जेते कछु जीव हैं, सो परमात्माविषे फुरते हैं, अरु परमात्माके आश्रय हैं, अरु वहीरूप हैं, जैसे तरंग आपको जाने कि मैं जलही हौं, तब तरंगसंज्ञा उसकी जाती रहती हैं, जलरूपही देखता है, तैसे जीव जब परमात्मासाथ आपको अभेद जाने कि मैं आत्माही हौं, तब जीवत्वभाव उसका अभाव हो जाता है, परमात्माही देखता है । हे रामजी ! जैसे जलविष दुवताकारकै तरंग भासते हैं, परंतु जलते इतर कछु वस्तु नहीं, तैसे शुद्ध चिन्मात्रविषे संवेदनकरिकै आदि ब्रह्मा फुरा है, तिसने यह जगत् मनोराज्यकरि कल्पा है, सो आकाशरूप निराकार है; अपर कछु बना नहीं, अरु जो विराट्ही आकाशरूप हुआ तो उसका शरीर कैसे साकार होवे, वह भी निराकार है, जैसे अपना अनुभव स्वरूपविषे पर्वत नदियां जड चेतन होकार भासता है, जैसे जैता कछु जगत भासता है, सो सर्वे आत्मरूप है ॥ हे रामजी । जैसे एक निद्राके दो स्वरूप हैं, स्वप्न अरु सुषुप्ति, तैसे एकही आत्माने जड अरु चेतन दो स्वरूप धारे हैं, अरु जगत आत्माविषे कछु बना नहीं, यह आभासरूप है, आत्मसचाही अपने वचनद्वारा जगतरूप हो भासती है, जैसे आकाशविषे घन शून्यताकार नीलता भासती है, सो अविचारसिद्ध है, नीलता कछु बनी. नहीं तैसे आत्माविषे घन चेतनाकारकै जगत् भासता हैं, परंतु जगत् आकार कछु बना नहीं सर्व काल आत्मा अद्वैत निराकार है, अनंत सृष्टि आत्माविषे आभास उपजिकारे लीन हो जाती हैं, आत्मा ज्योंका त्यों हैं, जैसे समुद्रविषे तरंग उपजि लीन हो जाते हैं, परंतु जलरूप हैं, तैसे परब्रह्मविषे सृष्टि परब्रह्मरूप है ॥ हे रामजी ! यह जगत् विराट्को शरीर, शीश उसका महाआकाश है, दशों दिशा तिसकी धुजा हैं, अरु पृथ्वी उसके चरण हैं, पातालरूप तलियां हैं, अंतरिक्ष मध्यलोक उसका उदर हैं, सर्व जीव तिसकी रोमावली हैं, इनते लेकर सर्व पदार्थ विराट्के अंग हैं, सो विराट् आकाशरूप है, जैसे विराटू ब्रह्माजी आकाशरूप हैं, तैसे तिसका जगत् भी आकाशरूप है, ताते सर्वे जगत् विराट्रूप है, सो ब्रह्मही है, अपर कछु बना नहीं, चंद्रमा सूर्य