पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४३

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योगवासिष्ठ । ( १७२४) द्विशताधिकपंचपंचाशत्तमः सर्गः २५५. द्वैतैकताभाववर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । यह जगउवास्तवते ज्ञानस्वरूप है,आत्मसत्ताका चमत्कार है, अपर कछु बना नहीं, ब्रह्मसत्ताही कुरणेकरिकै इसप्रकार हो भासती हैं, अपर कारण इसका कोऊ नहीं जब महाप्रलय था, तब शब्द अर्थ द्वैत कछुन था, तिस अद्वैतसत्ताते जगत् ऊरि आया है। सो तिसीते भासि आया हैं, जैसे बीजते वृक्ष उत्पन्न होता है, सो बीज भी जगतका कोऊ न था, तौ किस कारणते उत्पन्न हुआ, अपर तौ कारण कोऊ न था, ताते अब भी जगत्को महाप्रलयरूप जान ॥ हे रामजी। न कोऊ पृथ्वी आदिक तत्त्व हैं, न जगत् हैं न आभास है, न ऊरणा है जैसे आकाशके फूलका शब्द निरर्थक हैं, तैसे इनका होना भी निरर्थक है, केवल ब्रह्मसत्ता स्वच्छ अपने आपविणे स्थित हैं, रूप इंद्रियां मन भी ब्रह्मस्वरूप हैं, जैसे स्वप्नविषे अपना अनुभव है, नानाप्रकारका जगत् आकार अरु ईद्रिय मन होकार भासता है, अपर तौ कछु नहीं, तैसे यह जगत् भी यहीरूप है । हे रामजी ! सर्व जगत् आत्मरूप है, जैसे कारणविना आकाशहीविषे दूसरा चंद्रमा भासि आता है सो कछु हुआ नहीं, आकाशहीविषे भासि आता है, तैसे यह जगत् आत्माका आभास है, जिसविषे आभास फुरा सो अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है, जेते कछु पदार्थ तुझको भासते हैं, सो ब्रह्मस्वरूप जान, जैसे मनोराज्यकी सृष्टि होती है, सो अपने अनुभवविषे होती है, उसका स्वरूप अनुभवते इतर कछु नहीं तैसे सृष्टिके आदि जो अनुभव होता है, सो अनुभवरूप है, अपर कछु उपजा नहीं, वही अनुभवसत्ता इसप्रकार भासती है । हे रामजी देशते देशांतरको संवित् प्राप्त होती है, तिसके मध्यविषे जो अनुभव है, सो तेरा स्वरूप है, अपर सब आभासमात्र है, जाग्रत् देशको त्यागिकार स्वप्नशरीरसाथ मिली नहीं, जो जाग्रत् स्वप्नदेशका मध्य है, सो मध्यविषे ब्रह्मसत्ता तेरा स्वरूप है, स्वप्रकाशरूप अपने आपविषे स्थित हैं, जाग्रत जो जगत हिजो अनुभव होतकर भासती है। अनुभव है, सो तेरा साथ