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देहसत्ताविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

अपर जड चेतन भिन्न कोई नहीं, यह मिथ्या संकल्पकी रचना हैं, जैसे बालकको परछाईंविषे वैताल भासता है, तैसे सब कल्पना मनकी है, जैसे एक गन्नेके रसकरि गुड़ हो जाता है, कहूँ शक्कर खंड होती है, तैसे एक परमात्म सत्ता सर्व समान है, तिसविषे जडचेतनकी कल्पना मिथ्या है, जबलग सम्यक् दृष्टि नहीं प्राप्त भई, तबलग जडचेतनकी दृष्टि होती हैं, जब यथार्थदृष्टि प्राप्त होती है, तब भेदकल्पना सब मिटि जाती है, जैसे सीपीविषे रूपा भासता है, सो न सत्य होता है, न असत्य होता है, तैसे आत्माविषे जड चेतन सत्यअसत्य विलक्षण कल्पना है॥ हे रामजी! जो सत्य है, सो असत्य नहीं होता, अरु जो असत्य है, सो सत्य नहीं होता, आत्मा सदा सत्यरूप है, अरु अपने आपवित्र स्थित है, तिसविष द्वैत एकका अभाव है, जैसे पत्थरविषे अन्य सत्ताका अभाव है, तैसे आत्माविषे द्वैतसत्ताका अभाव है, नानारूप भासता है, तो भी द्वैत कछु नहीं, सदा अनुभवरूप है, विभागकल्पना तिसविषे कछु नहीं, सदा अद्वैतरूप है, जेती कछु भेदकल्पना भासती है, सो चित्तकरि भासती है, जब चित्तका अभाव होता है, तब जडचेतनकी कल्पना मिटि जाती है, जैसे वंध्याके पुत्रको अभाव है, जैसे आकाशविषे वृक्षका अभाव है, तैसे आत्माविषे कल्पनाका अभावहै॥ हेरामजी! यह जो कल्पनाहै, कि यह चेतनहै, यह जड है यह उपजता है, यह मिटि जाता है, इत्यादिक सब कल्पना मिथ्या हैं, जैसे जेवरीविषे सर्प मिथ्या है, तैसे केवल निर्विकल्प चिन्मात्र आत्माविषे कल्पना मिथ्या है, अरु गुरुशास्त्र भी जो आत्माको चेतन कहते हैं, अनात्माको जड कहतेहैं, सो भी बोधके निमित्त कहते हैं, दृष्टांत युक्तिकरि दृश्यको आत्मस्वरूपविषे स्थित करते हैं, जब स्वरूपविषे दृढ़ स्थिति होवैगी तब जडचेतनकी भेदकल्पना जाती रहैगी, केवल अचैत्य चिन्मात्रसत्ता भासैगी, जो तत्त्व है, इसप्रकार गुरु भी जडचेतनके विभागका उपदेश करते हैं, तौ भी मूर्ख नहीं ग्रहण करि सकते, तौ जब प्रथमहीं अचैत्य चिन्मात्र अवाच्यपदका उपदेश करै, तब कैसे ग्रहण करै॥ हे रामजी! और आश्चर्य देख कि, चित्त और हैं, इंद्रिय