पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

जीवन्मुक्तलक्षणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७१९) आत्माके प्रमादकार इसको कष्ट होता है,अपनी विभूति विद्याको त्यागि करि प्रसन्न होता है, बहुरि संसारके क्रूर मार्गविषे कष्ट पाता है,वह मनुष्य नहीं मानो मृग है, संसाररूपी जंगलविषे कष्ट पाता है, जब तृषाकरि कायर होता है, तब जलकी ओर दौडता है, जहाँ जाता है, तहाँ मरुस्थलकी नदी भासती है, जल प्राप्त नहीं होता, बार आगे दौडता है, तब अधिक तृषा बढ़ जाती है,इसप्रकार दौडता दौडता जड होजाता है, दुःखी होकर मर जाता है, परंतु जल प्राप्त नहीं होता, सो जल अरु दौडना अरु जड़ती अरु मरना चारों भिन्न भिन्न सुन्। हे रामजी ! मन रूपी तौ मृग है; अरु संसाररूपी जंगलविषे आनि पडा है, अरु इंद्रियोंके विषयरूपी जलाभास हैं, तिनको सत् जानिकार शाँतिके निमित्त तृष्णारूपी मार्गकार दौडता है, सो विषय आभासमात्र हैं, तिनविषे शाँति रूपी जल है नहीं, दौडता दौडता वृद्ध अवस्थाविषे जाय पडता, तब जड हो जाता है, ऐसे कष्टको प्राप्त होता है, अरु शाँतिरूपी जल नहीं पाता, तृप्त नहीं होता ।। हे रामजी! यह मनुष्यही मानौ पैडोई हैं, तिसके शीशपर बड़ा भार है, अरु क्रूर मार्गविष चला जाता है, अरु मार्गविषे इसको चोरने लूट लिया है,तिशकार जलता है,इस पुरुषरूपी पैडोईकै शीशपर जन्मका बड़ा भार है, संशयरूपी मार्गविषे खड़ा है, कर्मइंद्रिय ज्ञानईद्रिय तिनके जो विषय हैं, इष्ट अनिष्ट तिनके रागद्वेष रूपी तस्करने इससों विचाररूपी धन हार लिया है, तिनकार रागदोषतृष्णारूपी अग्निसाथ जलता है, बड़ा आश्चर्य है, जो ऐसे क्रूर मार्गको त्यागिकार वह परमपदविषे विश्राम पाया है, अन्य आनंदको त्यागिकारि परमपद आनंदको प्राप्त भये हैं, तिन मुक्त पुरुषको संमाग्का दुःख सुख नहीं व्याप सकता, परम अद्वैत शुद्ध सत्ताको प्राप्त भये हैं, सवैको देखते हैं, ग्रहण अरु त्यागरूपी जो अग्नि है, तिसको त्यागिकार उन परमपदविषे विश्राम पाया है, सदा सोये रहते हैं, प्रगट सुखसाथ जो सोते हैं, सो वही सोते हैं, उनके अंतर सदा शांति रहती है,परंतु जडताते रहित हैं, आकाशते भी अधिक सूक्ष्मसत्तको प्राप्त हुये हैं, जैसे समृद्