पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१७-१८) योगवासिष्ठ ।, द्विशताधिकत्रिपंचाशत्तमः सर्गः २५३. जीवन्मुक्तलक्षणवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जो पुरुष इंद्रियके इष्ट विषयको पाय कर सुख नहीं मानता; अरु अनिष्टविषयको पायकारे दुःख नहीं मानता इनके भ्रमते मुक्त है, जिसको बड़े भोग आनि प्राप्त हुये हैं, अरु अपने स्वरूपते चलायमान नहीं होता, तिसको जीवन्मुक्त जान ॥ हे रामजी! जेते कछु शब्द अर्थ हैं, सो जिसको द्वैतरूप नहीं भासते, सो तू जीव- . न्मुक्त जान, जिस अविद्यारूपी जाग्रविषे अज्ञानी जागते हैं, तिसते ज्ञानवान् सोये रहे हैं, अरु परमार्थरूपी जाग्रत्ते अज्ञानी सोय रहे हैं, नहीं जानते यह अर्थ है, तिसविषे जीवन्मुक्तस्थित हैं, इस कारणते ज्ञानवान् इष्टु अनिष्ट विषयको पायकरि सुखी अरु दुःखी नहीं होते तिनका चित्त सदा आत्मपदविणें स्थित है ॥ राम उवाच ।। हे भगवन् ! जो पुरुष सुखको पायकार सुखी नहीं होता, अरु दुःखसाथ दुःखी नहीं होता, सो जड हुआ, चेतन तौ न हुआ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! सुखदुःख तबलग होता है, जबलग चित्तको जगत्का संबंध होता है, जब चित्त जगत्के संबंधते रहित चिन्मात्रहोता है, तब औपाधिक जो हैं, सुख अरु दुःख सो नहीं रहते, जो अपने स्वभावविषे स्थित पुरुषहै, सो परम विश्रामको प्राप्त होता है, अरु वह सर्वको करता है, परंतु स्वरूपते उसको कर्तव्यका उत्थान कछु नहीं होता, निश्चय सदा अद्वैतविषेरहता है, नेत्रसाथ देखता है, परंतु द्वैतकी भावना उसको कछु नहीं फुरती जैसे अत्यंत उन्मत्त होता है, तिसको सब पदार्थदृष्ट भी आते हैं, परंतु उसको पदार्थका ज्ञान कछु नहीं होता, तैसे जिसकी बुद्धि अद्वैतविषे घनीभूत भई है, तिसको द्वैतरूप पदार्थ नहीं भासते, जिनको द्वैत नहीं भासता, तिनको सुखदुःख कैसे भालें, तिन पुरुषोंने तहाँ विश्राम किया है, जहां न शय्या है, न जागृहे, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है; सर्व द्वैततेरहितअद्वैत रूपी शय्याविषे विश्रामकार रहे हैं, संसारमार्गते उल्लंघि गये हैं, अरु