पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सालभजनकोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७१७) आदि कछु जगतुका अंश न था, बहुरि अनुभव कैसे कहौं,जोअनुभवही न हुआ, तौ स्मृति किसको होवै, जो स्मृतिही न हुई तौ बहुरि तिसते जगत कैसे कहौं, ताते हे रामजी!आदि जो जगत् फुरा हैं, सो अकारण अकस्मात्ते कुरा है, जैसे रत्नकी लाट होती है तैसे जगत् है, पाछेते कारणकार्यरूप भासती है, आदि अकारणरूप है, ताते हे रामजी । जिसका कारण कोऊ न होवै, सो जानिये कि उपजी नहीं, जिसविषे भासती है वही रूप है, अधिष्ठानते इतर कछु नहीं, ताते सब जगत् ब्रह्मस्वरूप है, स्मृति भी भ्रमविषेआभास ऊरी है, अनुभव भी आभास, सो ब्रह्मते इतर कछु नहीं अरु आभास भी कछु फुरा नहीं, आभासकी नांईजगत् भासता है, आत्मसत्ता अद्वैत है, जिसविषे आभास भी नहीं बनता, न स्मृति है, न अनुभव है, न जागृत है, न स्वप्न है, यह कल्पना कछु नहीं, तो क्या है, ब्रह्मही है, अरु ऊरणा जो कछु कहते हैं, सो कछु । वस्तु नहीं जैसे स्तंभविषे पुतलियां कल्पता है, तैसे स्पंद चेतना आत्मा विषे जगत कल्पती है, अरु शिल्पी जो कल्पता है, सो आप भिन्न होकर कल्पता है, अरुयह चित्तसत्ता ऐसी हैं, कि अपनेही स्वरूपविधे करुपती है, जगनुरूपी पुतलियां देखती हैं, सो आत्मआकाशरूपीस्तंभ है, तिसविषे जगत् भी आकाशरूपी पुतलियां हैं, जैसे आकाश अपने आकाशभावविषे स्थित है, तैसे ब्रह्म अपने ब्रह्मत्वभावविषे स्थित है, जगत् भिन्न भी दृष्ट आता है, परंतु अचैत्य चिन्मात्रस्वरूप है, भेदभावको नहीं प्राप्त भया, विकारवान् भी दृढ आता हैं, परंतु विकार कछ हुआ नहीं, जैसे स्वप्नविषे आपही सच स्पष्ट भासता है, तैसे यह जगत् अपने आपविषे भासता है, परंतु है कछु नहीं ॥ हे रामजी । यही आश्चर्य है, जो मैं ऐसा उपदेश किया है, अपने अनुभवको प्रगट कार कहा है, अरु जीव आप भी जानते हैं, स्वप्नविषे नित्य देखते हैं, अरु सुनते भी हैं, परंतु निश्चयकर जान नहीं सकते, अरुस्वप्नपदार्थको मूर्खताकार त्यागि नहीं सकते यह आश्चर्य हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सालभजनकोपदेशो नाम द्विशताधिकद्विपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २९२ ॥