पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२३

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( १७०४ ) इतर कछु नहीं, सब जगत् आत्मरूप है, परंतु अज्ञानकारकै भिन्न भिन्न भासता है; अरु यह जगत् सब अपना आपरूप है, इतर कछु नहीं, जो आत्मरूप है, तौ ग्राह्यग्रहण कैसे भास होवै, यह मिथ्याभ्रम है, पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश, पर्वत, घट, पट आदिक सब जगत् भ्रमरूप है, ज्ञानवान्को सदा यही निश्चय रहता है कि, अचेत चिन्मात्र अपने आपविर्षे स्थित है, ब्रह्मादिक भी कछु ऊरिकार उदय नहीं भये, ज्योंके त्यों हैं, उत्थान कछु न हुआ, अरु अज्ञानीके निश्चयमें नानाप्रकारको जगत है,उत्पत्ति स्थिति प्रलय ब्रह्मादिक संपूर्ण हैं । हे रामजी । यह कछु उपजा नहीं, कारणत्वके अभावते सदा एकरस आत्मसत्ताही है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनं नाम द्विशताधिकाष्टचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ २४८ ॥ द्विशताधिकैकोनपंचाशत्तमः सर्गः २४९. . जात्स्वप्नप्रतिपादनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी जाग्रत अरु स्वमका निर्णय अब सुन, जब इस जगविषे सोय जाता है, तब स्वप्नकी सृष्टि देखता है; उसविषे जागृत होती है, जागृत होकार भासती है, अरु जब तहां सोय जाता है, तब बहुरि यह सृष्टि देखता है, यही जागृत हो भासती है,यहाँ सोयकारि स्वप्नविष जागृत होती है, वहीं सोयकरि यही जागृत होती है, तो स्वप्न जागृत हुआ, जाग्रतका जाग्रत नहीं होता. जाग्रत जो वस्तु है सो आत्मसत्ता हैं, तिसविषे जागना सोई जाग्रतकी जाग्रत है, अपर सब स्वप्नजाग्रतहै, जब यहाँ शयन करता है, तब स्वप्नका जाग्रत सत् होकार भासता है, यह असत् हो जाता है, अरु स्वप्नविषे वहांते शयन करता है, अर्थ यह कि स्वप्नते निवृत्त होता है, अरु जाग्रतविषे जागता है, तब वहां असत हो जाता है, वह स्वप्नजाग्रतविषे स्मृतिको प्राप्त होता है, अरु जब जाग्रतविषे सोया अरु स्वप्नविषे जागा, तब जाग्रत स्वभावको प्राप्त भई, अरु जब स्वप्नते उठिकारि जाग्रतविधे आया, तब स्वरूप जाग्रत स्मृति