पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२१

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(१७०२) योगवासिष्ठ । नेवाले हैं, तिनको बोध उदय होता है, अपर शास्त्रका जो अर्थ है, सो भी सुंदरताकरिकै खुलि आता है, जैसे लोनका अधिकारी व्यंजन पदार्थ है, तिसविषे लोन पाया स्वादिष्ट होता है, अरु प्रीतिसहित ग्रहण करता है, तैसे जो इस शास्त्रके सुनने कहनेवाले हैं, सो अपर शास्त्रका भी अर्थ सुंदर करेंगे । हे रामजी । ऐसे न करिये कि, किसी अपर पक्षको अपना मानकर इसका श्रवण भी न करिये, जैसे किसीके पिताका खारा कुँवा था, अरु तिसके निकट मिष्ट जलका कुँवा था, वह अपने पिताका कूप मानिकार, खाराही जल पीता था, निकट मिष्ट जलके कुँवेका त्याग करता था, तैसे अपना पक्ष मानिकार मेरे शास्त्रका त्याग नहीं करना, जो ऐसे जानकार मेरे शास्त्रको न सुनेगा, तिसको ज्ञान प्राप्त न होवैगा, जो पुरुष इस शास्त्रविषे दूषण आरोपण करेगा कि, यह सिद्धांत यथार्थ नहीं कहा, तिसको ज्ञान कदाचित् न प्राप्त होवैगा; वह आत्महता है तिसके वाक्य श्रवण नहीं करने, अरु जो प्रीतिपूर्वक पूजा भाव करिकै श्रवण करै, विचारे, पाठ करे, तिसको निर्मल ज्ञान होवैगा, अरु क्रिया भी निर्मल होवैगी, ताते नित्यप्रति विचारने योग्य है ॥ हे रामजी! तुझको उपदेश किया है, सो किसी अर्थके निमित्त नहीं किया, दया कारकै किया हैं, अरु तुम जो किसीको कहोगे, तौ भी अर्थविना दया कारकै कहना ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे इंद्रियजयवर्णनं नाम द्विशताधिकसप्तचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ २४७ ॥ द्विशताधिकाष्टचत्वारिंशत्तमः सर्गः २४८, , ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । आत्माविषे जगत् कछ हुआ नहीं, जब ‘शुद्धचिन्मात्रविषे अहं ऊरणा होता है, तब वही संवेदन ऊरणा जगतरूप हो. भासता है, जब अधिष्ठानकी ओर देखता है, तब वही संवेदन अधिछानरूप हो जाता है, अपने रूपको त्याग देता है, अचेत चिन्मात्र होता हैं ॥ हे रामजी, ऊरणेविषे भी वही है, अरु अफुरणेविषे भी वही