पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८१३

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(१६९४) योगवासिष्ठ । होकर अपने जन्मको स्मरण करता है, अरु कहता है सब भ्रममात्र थे, तैसे यह सब जागेगा तब कहेगा, सब भ्रममात्र प्रतिभा मुझको भासी थी, न कोऊ बंध है, न कोऊ मुक्त है, काहेते जो दृश्य अविद्यक बध मोक्ष कैसा है,जब चित्तकी वृत्ति निर्विकल्प होती है, तब मोक्ष भासता है, अरु जबलग वासना विकल्प सत् है, तबलग बंध भासता है । हे रामजी ! आत्माविषे बंध मोक्ष दोनो नहीं, बुध होवै तब मोक्ष भी होवे, बंध नहीं तौ मोक्ष कैसे होवे, बंध अरु मोक्ष दोनो चित्तसंवेदुनविषे भासता है, ताते चित्तको निर्वाण करु, तब सब कल्पना मिटि जावैगी, जेते कछु पदार्थ के प्रतिपादन करनेहारे शब्द हैं, तिनको त्यागिकार निर्मल ज्ञानमात्र जो आत्मसत्ता है, तिसविषे स्थित होहु, जो कछु खान पान बोलना चालना सब क्रियाको करु, परंतु अंतरते परम पद पानेका यत्न करु ॥ हे रामजी ! नेतिनेतिकार सर्व शब्दको अभाव करु, बहुरि अभावका भी अभाव करु, तिसके पाछे जो शेष रहेगा, सो आत्मसत्ता परम निर्वाणरूप है, तिसविषे स्थित होहु, अरु जो कछु अपना आचार कर्म है, सो यथाशास्त्र करु, अरु हृदयते सर्वे कल्पनाका त्याग करु, इसप्रकार आत्मसत्ताविषे स्थित होटु ॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे निर्वाणोपदेशो नाम द्विशताधिकपंचचत्वारिशत्तमः सर्गः ॥ २५ ॥ द्विशताधिकषट्चत्वारिंशत्तमः सर्गः २४६. अविद्यनाशोपदेशवर्णनम् ।। | वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो सब चिदाकाश आत्मरूप हैं, ज्ञानवान्को सदा वही भासते हैं, आत्माते इतर कछु नहीं भासता, रूप दृश्य अवलोक इंद्रियां मनस्कार ऊरणा इसीका नाम संसार है, सो यहभी आत्मरूप है, आत्मसत्ताही इसप्र, कार हो भासती है, जैसे अपनी संवित् स्वप्नविषे रूप अवलोकन मन