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निर्वाणोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. ( १६९१ ) भासते हैं, अरु जिसकी भावना अधर्मविषे होती है, तिसको नरकादिक दुःख पदार्थ भासते हैं, शुभ कर्मकार शांतिकी इच्छा नहीं भासती, सी शुभ भी दो प्रकारके हैं, एकको स्वर्गसुख भासते हैं, एकको सिद्धिकी भावना कारकै सिद्धलोक भासते हैं, अरु जिसको अशुभ भावना होती है। तिसको नानाप्रकारके नरक भासते हैं । हे रामजी । जब यह संवित् अनात्माविषे आत्मअभिमान करती है, तिनके कर्मविषे आपको कत्ती जानती है, सो पाप करिकै अनेक दुःखको प्राप्त होती है, सो दुःख कहनेविषे नहीं आते, जैसे पहाडोंविषे भी पीसनेते बड़ा कष्ट होता है, अंगारकी वर्षांकरि जैसे कष्ट होवे, अंधे कूपविषे गिरणेकार कष्ट होता है, परंतु स्वीके भोगनेकार अंगारसाथ स्पर्श करता है, अग्निसाथ तप्त लोहेसों कंठसाथ लगता है, अरु जिस स्त्रीने परपुरुषको भोगा है, सो अंधे कूपरूप उखलीविषे खङ्गरूपी मूशल कारकै कटती है, अरु जो देहअभिमानी देवता पितर अतिथिके दियेविना भोजन करता है, तिसको भी यमदूत बडा कष्ट देता हैं, खङ्ग अरु वरछीकार माँसको काटता है, अरु प्रहार करता है; परलोकविषे क्षुधा अरु तृष्णा कारकै कष्टवान् होता है, अरु जिन नेत्रोंकर परस्त्री देखी है, तिन नेत्रोंको छुरोका प्रहार होता है, एक वृक्ष है तिसके पत्र लगते हैं; सोखङ्गके प्रहारकी नई लगते हैं, शूलऊपर चढावते हैं, इनते आदि लेकर तिनको कष्ट होता है, अरु जो शुभ कर्म करते हैं, सो स्वर्गको भोगते हैं, ताते जैसा जैसा कर्म करते हैं, तिनके अनुसार जगत्को देखते हैं, जिस जिस भावको चिंतत्यागते हैं, सो तिसको प्राप्त होते हैं, केवल वासनामात्र संसार है, जैसा निश्चय होता है, तैसाही भासता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे , स्वर्गनरकप्रारब्धवर्णनं नाम द्विशताधिकचतुश्चत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ २४४ द्विशताधिकपचचत्वारिंशत्तमः सर्गः २४५. निर्वाणोपदेशवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह जो तुमने मुनीश्वर अरु वधिकका वृत्तांत कहा है, सो बड़ा आश्चर्यरूप है, यह वृत्तांत स्वाभाविक हुआ है,