पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

स्वर्गनरकप्रारब्धवर्णन-निर्वाणप्रकरणे, उत्तरार्द्ध ६. (१६८७) उनके आचार देखे हैं, दशो दिशाको मैं फिरा हौं, अरु भोग बहुत भोगे हैं, बड़ी बड़ी विभूति पाई हैं अरु देखी हैं, अनेक प्रकारकी चेष्टा करी हैं, परंतु मुझको स्वप्न प्राप्त भया, काहेते जो सब भोग पदार्थ अरु कर्म अविद्याकरिकै रचे हुये हैं, तिस अविद्याके अंत लेनेको बहुत काल फिरता रहा हौं, अनेक युगपर्यंत फिरा हौं, अंत कहूँ नहीं आया, अरु वसिष्ठजीकी कृपाकर अब मुझको स्वरूपका साक्षात्कार हुआ, अविद्या नष्ट भई है, परमानंदको प्राप्त हुआ हौं ॥ इतिश्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विपश्चिद्देशतिरभ्रमवर्णनं नाम द्विशताधिकत्रिचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ २४३ ॥ दिशताधिकचतुश्चत्वारिंशत्तमः सर्गः २४४. स्वर्गनरकप्रारब्धवर्णनम् ।। वाल्मीकिरुवाच ॥ हे साधो ! जब इसप्रकार विपश्चितने कहा, तब सायंकाल हुआ सूर्य अंतर्धान हो गया,मानौ विपश्चित्के वृत्तांत देखनेको अन्य सृष्टिविषे गया है, अरु नोबत नगारे बजने लगे,मानौ राजाशरथकी जयजय करते हैं, तिस समय राजा दशरथने धनकार अरु जवाहिरकॉरभूषण वस्रकारे यथायोग्य राजाविपश्चितका पूजन किया,अरु देशरथते आदि लेकर सब राजा वसिष्ठजीको प्रणाम करत भये, अरु परस्पर प्रणाम कारकै सर्वसभासद अपनेस्थानोंको गये,स्नान किया,यथाक्रमकारकै भोजन किया, नियम करिकै विचारसहित रात्रिको व्यतीत किया, जब सूर्य की किरणें उद्यभईं,तब अपने अपने स्थानपर परस्पर नमस्कार करेके आयबैठे,तब वसिष्ठजीपूर्वके प्रसंगको लेकर बोलेहे रामजी! यह अविद्या अविद्यमान है अरु भासती है, यहआश्चर्य जो वस्तु सदा विद्यमान है सो नहीं भासती, अरु जो अविद्याही नहीं सो सदा भासतीहै,इसीका नाम अविद्या है । हे रामजी ! आत्मसत्ता अनुभवरूप है, तिसका अनुभव होना निश्चय हो रहा है, अरु अविद्यक जगत् जो कभी कछु हुआ नहीं सो स्पष्ट होकार भासता हैं, यह अविद्या है ॥ हे रामजी । सिद्ध