पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०५

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योगवासिष्ठ । चार सत्ता इस जगविषे फुरी हैं, सारधी, गोपती, समानब्रह्मसत्ता अरु अविद्या, तिनविषे सारधी अरु गोपतीसत्ता जिज्ञासीकी भावनाविषे भासती हैं, अरु समानसत्ताज्ञानीको भासती है,अरु अविद्या अज्ञानीको भासती है, सो चारों भी ब्रह्मते भिन्न नहीं, ब्रह्महीके नाम हैं, ब्रह्मसत्ता स्वभाव चेतनताकारकै ऐसेही भासती है, जैसे वायु फुरणेकरिकै चलती भासती है, अरु ठहरनेकरिकै अचल भासती है, तैसे चेतनता फुरणेकारकै नानाप्रकारके कौतुक उठते हैं, फुरणेते रहित निर्विकल्प हो जाता है, ऐसा पदार्थ कोऊ नहीं, जो तिसविषे सत् नहीं अरु ऐसा भी पदार्थ कोऊ नहीं, जो असत् नहीं, सब समान हैं, जैसे आकाशके फूल हैं, तैसे घटपटादिक हैं, अरु जैसे इनके उत्थानका अनुभव होता है, तैसे उनका अनुभव होता है; सब पदार्थसत्ताहीकार सत् भासते हैं, अरु जेते कछु शब्द अर्थ फुरे हैं, सो सब मिटि जातेहैं, ताते असत् हैं; आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, तिसका नाश कदाचित् नहीं होता, जो मारकै जन्मा नहीं तौ आनंद है, मुक्त भया, अरु जो मारकै जन्म लेता है, तो भी अविनाशी भया, ताते शोककरना व्यर्थ है । हे रामजी । जगत्के आदिविषे भी ब्रह्मसत्ता थी, अरु अंतविषे भी वही होवैगी, जो आदि अरु अंतविषे वही हैं, मध्यविषे भी वही जानियेताते सब जगवे आत्मरूप है, जेते कछु शब्द हैं, सब अर्थसंयुक्त हैं, सो सर्व शब्द अरु अर्थाकार अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है, ताते सब जगत् ब्रह्मरूप है। जिसको यथार्थ अनुभव होता है, तिसको ऐसे भासता है, अरु जिसको यथार्थका अनुभव नहीं भया, तिसको नानाप्रकारका जगत् भासताहै, अरु आत्माविषे जगत् कछु बना नहीं, सब आकाशरूप है; ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, अरु ब्रह्मते इतर जो कछु भासता है, सो ब्रह्ममात्र नाशरूप है, जो दृश्य पदार्थ सब नाशरूप हैं, जिसने सत् जाने हैं। तिसके साथ कछु प्रयोजन नहीं, जो दूसरा कछु बना नहीं तो मैं क्या कहौं, जिसविषे यह सब पदार्थ आभास फुरते हैं, तिस अधिष्ठानको देखें तौ सब वहीरूप भासेंगे, अरु जो पुरुष स्वभावविषे स्थित है, तिसको यह वचन शोभावान होते हैं, मैं अनंत सृष्टि देखी हैं, अरु भिन्न भिन्न