पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९६

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सिद्धनिर्वाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१६७७) होनी होती है, जो न होवै, तो क्यों कहै, ताते भावी मिटती नहीं ॥ हे वधिक ! मैं तुझको दो मार्ग कहे हैं, जवलग इसको कर्मकी कल्पना स्पर्श करती है, तवलग कर्मके बंधनते छुटता नहीं, अरु जो कर्मकी कल्पना आत्माको स्पर्श न करे, तौ कर्म कोऊ नहीं वैधन करता, काहेते कि, उसको आत्मा अद्वैतको अनुभव होता है, द्वैतरूप कर्म दिखाई नहीं देते सुखदुःख सर्व आत्मरूप हो जाते हैं, अरु कर्म तवलग वैधन करते हैं। जवलग आत्मबोध नहीं हुआ, जब आत्मबोध होता है, तब सर्व कर्म दग्ध हो जाते हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भविष्यकथावर्णन नाम द्विशताधिकैकचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ २४१॥ द्विशताधिकद्विचत्वारिंशत्तमः सर्गः २४२. सिद्धनिर्वाणवर्णनम् । व्याध उवाच । हे भगवन् ! यह जो तुम मुझको कहा, सो सुनि करिकै आश्चर्यको प्राप्त हुआ हौं भला शरीर गिरनेते उपरांत मेरी अवस्था क्या होवैगी, जब विस्ताररूप वासनाशरीर आकाशरूप होवेगा ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! तेरा शरीर गिरेगा, तव तेरी संविद प्राणवासनासहित आकाशरूप हो जावैगी, महासूक्ष्म अणुवत हो जावैगी, तिस सविताविषे तुझको बहुरि नानाप्रकारका जगत् भासैगा, पृथ्वी देश काल पदार्थ सर्व भासि आवैगे, जैसे सूक्ष्म संवितविषे स्वप्रका जगत् भासि आता है। तैसे तुझको जगत् भासि आवैगा, तहाँ तेरी संविविषे यह आनि फुरेगा, कि मैं राजा हौं, अष्ट वर्षका हौं, अरु मेरे पितामहका नाम इंद्र है, अरु माताको नाम प्रद्युम्नकी पुत्री बधलेखा है, अरु मेरा पिता मुझको राज्य देकर वनको गया है, अरु तप करने लगा है, अरु चारों और समुद्रपर्यंत हमारा राज्य है ॥ हे वधिक ! तहाँ तेरा नाम सिद्ध होवैगा, तहाँ तू कई शतवर्षपर्यंत राज्य करैगा, अरु नानाप्रकारके विषयको भोगेगा ॥ है वधिक ! एक विदूरथ नामीराजा पृथ्वीविषे होवैगा, तेरेसाथ शत्रुभाव करेगा, तेरी पृथ्वीसीमा लेनेका यत्न करैगा, तव तू मनविष