पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९३

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(१६७४) योगवासिष्ठ । उग्र तप करने लगा, जब सहस्र वर्ष तप करते व्यतीत भया, परंतु मनुविप्ने कामना यही रक्खी, कि मेरा शरीर वड़ा होवै, दिन दिनविषे बहुत भोजन बदै, मैं अविद्यक संसारका अंत लेॐ कि, कहाँलग चला जाता है, जब अविद्याका अंत आवैगा, तब आगे आत्माका दर्शन होवैगा, तब सहस्र वर्ष उपरांत समाधिते उतरा, अंरु गुरुके निकट आयकर प्रणाम किया अरु कहा ॥ हे भगवन् ! मैं एता काल तप किया है, परंतु शांति मुझको प्राप्त नहीं भई ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! तुझको उपदेश किया है, तिसका तुझने भली प्रकार अभ्यास न किया, इस कारणते तुझको शांति नहीं प्राप्त भई ॥ हे वधिक ! मैं तेरे हृदयविषे ज्ञानरूपी अग्निकी चिणगारी डारी थी, परंतु तुझने अभ्यासपी पवन करिकै प्रज्वलित न करी ताते यह भी आच्छादित हो गई, जैसे बड़े काष्ठके नीचे रंचक चिणगारी आच्छादित हो जाती है ॥ हे वधिक 1 हैं न मूर्ख है, न पंडित है,जो तू पंडित होता तौ आत्मपदविषे स्थिति पाता, अरु यह भी जब नष्ट नहीं होवैगा, तब अभ्यासकी दृढता होवैगी, तब । वह ज्ञान अरु शांति आनि उदय होवैगी, अब जो तेरे हृदयविषे है। भविष्यत् भी होनी है सो मैं तुझको कहता हौं । हे व्याध ! यही तुझने भली प्रकार विचारा है, कि संसार अविद्यक है, इसका मैं अंत लेऊ, कि कहलिग चला जाता है, इस कारणते मैं शरीर बढाव, अरु इसका अंत किसी प्रकार देखौं, अब तेरे चित्तविष यही निश्चय है, अरु आगे तेरे यह करना है, जो सौ युगपर्यंत उग्र तप करेगा, तब तुझ ऊपर परमेष्ठी ब्रह्मा प्रसन्न होवैगा, तव देवतसहित तेरे गृहविषे आवैगा, तुझसे कहेगा, कछु वर माग तब तू कहेगा ॥ है देव ! कैसा अविद्यक जगत् है, अविद्या किसी अणुविषे है. जैसे दर्पणविषे किसी और मलिनता होती है, तिसके नाश हुए दर्पण शुद्ध होता है, तैसे आत्माके किसी कोणविषे अविद्यारूपी मलिनता है, तिसके नाश हुए उल्लंघि गये, चिदात्माका साक्षात्कार मुझको होवैगा, जव अविद्यारूपी जगत्का अंत देखौंगा तब आत्मा मुझको भासैगा, मेरा शरीर घडी घडीविषे योजनपर्यंत बढ़ता जावै, जैसे गरुडको वेग होता है तैसे बढ़ता जावै, अरु मृत्यु भी मेरे वश होवै;