पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९१

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(१६७२) योगवासिष्ठ । तृष्णा मुझको न रही, अरु निरहंकार हुआ, आत्माविषे जो आत्माभिः मान था सो निवृत्त हो गया; परम निर्वाण हुआ, निराधार अरु निराचय हुआ अपने स्वभाव आत्मत्ववि में स्थित सर्वात्मा हुआ ॥ है। वधिक ! जो कछु शरीरका प्रारब्ध आनि प्राप्त होवै तिसविर्य यथाशास्त्र विचरौं, परंतु निश्चय कर्तृत्वका अभिमान न होवे, अरु जगत् मुझको आत्मरूप भासै, अरु तृष्णा करनेवाली मिथ्यार्बुद्धि आभासमात्र है, सो आभास कछु वस्तु नहीं चिदाकाश आत्मसत्ता अपने आपविष स्थित है ॥ हे वधिक ! मुनीश्वरको कहा वृत्तांत होता गया है। तू मेरे पास आनि प्राप्त भया है, जो कछु उपदेश किया है, सो मैं तुझको कहा है, जो परम पावन सवका सार है, सो मैं उपदेश किया है, जिस प्रकार जगत्के पदार्थ तू अरु मैं जाग्रत् वृत्तांत है, सो मैं तुझको कहा है ॥ व्याध उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! इसप्रकार हुआ तव तू अरु मैं अरु ब्रह्मादिक भी सर्व स्वप्नके हुये क्यों, सो असही सत्की नाई भासते हैं। मुनीश्वर उवाच ॥ हे व्याध ! तु अरु ६ अरु ब्रह्माते आदि तृणपर्यंत सर्व जगतके पदार्थ हैं, न यह जगत् सत है, न असत् है, न मध्य है, अनिर्वचनीय हैं, काहेते जो अनुभवरूप है ॥ हे व्याध ! जो अनुभव कारकै देखिये तो वहीरूप है, जो अनुभवते भिन्न कहिये तो हेही नहीं जैसे स्वप्नकी सृष्टि अनुभवविषे फुरती है, जो अधिष्ठानकी ओर देखिये तो वहीरूप है, उससे इतर कहनेविप नहीं आता ॥ हे वधिक । जैसे कहूं नगर देखा है, अरु अव दूर है, जो स्मृति करिकै देखिये ती भासता है परंतु कछु वना नहीं, स्मृतिमात्र है, तैसे जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो सव संकल्पमात्र हैं, कछ वने नहीं, तू अपने स्वभावविषे स्थित होकार देख, तू तौ बोधवान् है, मिथ्याभ्रमविषे क्यों पड़ा है । है व्याध ! म तुझको उपदेश किया है, तिसकारे तुझको विश्राम हुआ है, कि नहीं हुआ, जो पदपदार्थांविषे विश्राम हुआ है, जो ऐसी सत्ता है, परमपविष क्षण भी विश्राम नहीं पाया, काहेते जो दृढ भावना नहीं हुई ॥ हे वधिक । परमपद पानेका मार्ग यह है कि संतकी संगति अरु सच्छास्त्रको विचारणा, तिनके अभ्यास