पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

रात्रिसंवादवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१६६९) विषे आभास फुरी है, तैसे वह भी है, तू जागिकरि देख, इस अरु सवविष भेद कछु नहीं, अरु जेता कछु जगत् भासता है, सो सव आत्मरूप रत्नका चमत्कार है, जैसे सूर्यको किरणकरि अनहोता जल भासता है, तैसे सब जगत् आत्माविषे अनहोता भासता है, आत्माके प्रमादकर सत भासता है, तू अपने स्वभावविषे स्थित होकर देख ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! इस प्रकार उग्रतपा ऋषीश्वर रात्रिके समय कहता हुआ, शय्यापर शयन कर रहा, जब केते कालमैते जागा तव मैंने कहा ॥ हे भगवन् ! अपर वृत्तांत मैं पाछे पूछौंगा, परंतु यह संशय प्रथम दूर करौ कि, व्याधका गुरु मुझको तुम किस निमित्त कहा, मैं तो व्याधको जानता भी नहीं कि व्याध कौन है ॥ उग्रतपा उवाच ॥ है दीर्घतपस्वी ! तू ध्यान कारकै देख, तू तौ सव कछु जानता है। जिस प्रकार वृत्तांत है, तिसको जानैगा, अरु जो मुझसों पूछता है। तो मैं भी कहता हौं, अरु यह वृत्तांत तौ वडा है, मैं तुझको संक्षेपते कहता हौं ॥ हे मुनीश्वर! तुम्हारे ! देशमें राजाकी वैधी अरु लोक धर्मको छोड देवेंगे, तब दुर्भिक्ष्य आनि पड़ेगी, मेघ होनेते रहि जावेंगे, लोक तुःख पावेंगे, अरु मरि मर जावैगे, तेरा कुटुंव भी मारे जावैगा, कुटी भी नष्ट हो जावेगी,वृक्ष फल फूलते रहित होवैगे, एक तू अरु मैं दोनों वनविषे रहि जावेंगे, काहेते कि, इमको सुख अरु दुःखकी वासना नहीं, हम विदितवेद हैं, विदितवेदको दुःख कैसे होवै ॥ है मुनीश्वर ! कोऊ काल तौ इसप्रकार चेष्टा होवैगी, बहुरि कुटीके चौफेरि फूल फल तमालवृक्ष कल्पतरु कमल ताल इनते आदि लेकर नानाप्रकारकी सामग्री होंवैगी, वडी सुगंधि हो रहैगी, मोर अरु कोकिला आनि विराजेंगे, भंवरे कमल आनि गुंजार करेंगे, ऐसा विलास प्रकट होवैगा, मानौ इंद्रका नंदनवन आनि लगा है, ऐसी दशा वहुरि होवैगी ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे रात्रिसंवादो नाम द्विशताधिकात्रिंशत्तमः सर्गः ॥ २३८॥