पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

रात्रिसंवादवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६६७) वह शरीर दूर गये हैं, अव कहाँ देखेगा, आपे तू जानेगा, तब मैं हाथ जोडिकरि ऋषिको कहा ॥ हे ऋषि ! अब मैं जाता हौं; मेरे आनेपर्यंत तुम यहाँ बैठे रहना ॥ हे वधिक ! ऐसे कहकर मैं आधिभौतिक देहके अभिमानको त्यागिकार अंतवाहक शरीरसाथ उड़ा, तव आका; शमार्गाविषे मैं उड़ता उड़ता थका; परंतु शरीर कहूं न पाये, तब वहुरि ऋषिपास आया, अरु कहा ॥ हे पूर्व अपरके वेत्ता, भूतभविष्यके जाननेहारे, वह दोनों शरीर कहां गये, न इस सृष्टिके विराट्का शरीर * भासता है, जिसके स्कंध मार्ग राह हमें आये थे अरु ने अपना शरीर भासता है ॥ हे संशयरूपी अंधकारके नाशकर्ता सूर्य ! सो कहहु ॥ उग्रतपा उवाच ॥ हे कमलनयन 1 अरु तपरूपी कमलकी, खाणके सूर्य, हे ज्ञानरूपी कमलके धारणेहारा विष्णुकी नाभि, हे आनंदरूपी कमलकी खाण, तू भी सव कछु जानता है, अरु आत्मपदविषे जागा हुआ है, अरु योगीश्वर है, ध्यान करिके देख, जो सव वृत्तांत तुझको दृष्ट अवै ॥ हे मुनीश्वर ! यह जगत् असत्यरूप है, इसविषे स्थिर वस्तु कोऊ नहीं, तू विचारकरि देख जो शरीरको अवस्था तुझको दृष्ट आवे, अरु जो मुझसे पूछता है, तो मैं कहता हौं । हे मुनीश्वर । जिस वनविषे तुम रहते थे, तुम्हारे शरीर वहां थे, एक कालमें तिस वनविषे अग्नि लगी, तहाँ जो नानाप्रकारको वृक्ष वल्ली थी, सो सब जलि गई,अरु जल भी अग्निकार क्षोभने लगे, अरु वनचारी पशु पक्षी सब जलि गये, महाकष्टको प्राप्त भये, तहाँ तुम्हारे शरीर जल गये, कुटी भी जल गई। मुनीश्वर उवाच ॥ हे भगवन् ! उस अग्निसाथ जो संपूर्ण वन जल गया, तिस अग्निका कारण कौन था, जो अग्नि लगगई ॥ उग्रतपा उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! यह जगत् जो है, जिसविषे हम अरु तुम वैठे हैं, इसीका विराट् सोई है, जिसके शरीरविषे तुम प्रवेश किया था, अरु जिसविष उसका शरीर है, अरु तेरा समाधिवाला शरीर है, तिसका विराट् और है, वह सृष्टि उस विराट्का शरीर है ॥ हे मुनीश्वर ! उस विराट्के शरीविषे जो क्षोभ हुआ, इस कारणते अग्नि उत्पन्न भई, शरीर अरु वृक्ष सब जलि गये, इस सृष्टिके विराट्का नाम ब्रह्मा है, तिम् ब्रह्मका विराट् अपर