पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८५

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(१६६६) योगवासिष्ठ । मुझको उग्रतपाने उपदेश किया था, बहुरि जाग्रतविष कहते है कि, यह वैठा है, सो यह वार्ता तुम्हारी कैसे मानिये, जैसे बालक अपने परछायेविषे वैताल कल्पे, अरु कहै, प्रत्यक्ष वैठा है। जैसे वह स्पष्ट नहीं भासता, तैसे तुम्हारा वचन स्पष्ट नहीं भासता यह अपूर्व वार्ता सुनिकर मुझका संशय उपजा है, सो तुम दूर करौ ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! यह बात आश्चर्यके उपजावने हारी है, परंतु जैसा वृत्तांत हुआ है, सो संक्षेपते तुझको कहता हौं, सो सुन, जब उग्रतपाने मुझको उपदेश किया, तब मैंने कहा॥हे भगवन् ! तुम यहां विश्राम करौ; जिस प्रकार में रहता हौं, तैसे तुम रहौ, तब रहने लगा, अरु मैं उसका उपदेश पायगर विचारत भया कि, यह जगत् मिथ्या है, मेरा शरीर भी मिथ्या है, इसके सुखानिमित्त मैं क्या यत्न करता हौं, इंद्रियां तो ऐसी हैं, जैसे सर्प होते हैं। इनके सेवनेवाला संसाररूपविषे बंधनते कदाचित् मुक्त नहीं होता, मेरे जीनेको धिक्कार है, सो महामूर्ख है, मृगकी नाई मरुस्थलके जलपान करनेनिमित्त दौडते हैं, अरु थक पड़ते हैं, सो तृप्त कदाचित् न होवेंगे, सो मैं अविद्याकरिकै सुखके निमित्त यत्न करता था, इनकारि तृप्ति कदाचित् नहीं होती ।। हे वधिक ! ममताका रूप जो बांधव है, सो चरणाविषे जंजीर है, अंधकूपविषे गिरनेका कारण है, तिनसाथ बांधा हुआ इंद्रियोंके विषयरूपी कूपविषे मैं गिरा था, विचार किया कि जो बंधनका कारण कुटुंब है, तिसको मैं त्यागि जाऊं, बहुरि विचार किया कि, इनके त्यागविषे भी सुख नहीं प्राप्त होता, जब अविद्याको नष्ट करौं । हैं वधिक ! ऐसे विचार कर मैं गुरुकेपास गया, अरु मनविचे विचारा कि जगत् भ्रममात्र है, गुरु भी स्वप्नमात्र हैं, इनसों क्या प्राप्त होना है, वहुरि विचार किया कि, यह ज्ञानवान् पुरुष हैं, इनको अहेंब्रह्मका निश्चय है। ताते यह ब्रह्मस्वरूप हैं, कल्याणमूर्ति हैं, इनसों जाय प्रश्न करौं, अरु यूछौं, तब मैं जायकरि प्रणाम किया, अरु कहा ।। हे भगवन् ! उस अपने शरीरको देखि आॐ अरु इसके शरीरको भी देखौं, कि कहां है। जो इस जगत्का विराट् पुरुष है ॥ हे वधिक ! जब इस प्रकार मैंने कहा, तब ऋषिने हँसिकरि मुझको कहा ॥ हे ब्राह्मण ! वह तेरा शरीर कहा है।