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देहसत्ताविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

अपने आपविषे स्थित है, सम है, शांत है, सुषुप्तिकी नाईं तेरी वृत्ति है, अतिविस्तृत सम शुद्ध अपने स्वरूपविषे स्थित है॥ इति श्रीयो॰ निर्वाणप्रकरणे परमार्थयोगोपदेशोनाम चतुर्विंशतितमः सर्गः ॥२४॥



पंचविंशतितमः सर्गः २५.

देहसत्ताविचारवर्णनम्।

वाल्मीकि उवाच॥ इसप्रकार जब वसिष्ठजीने वचन कहे, तब रामजी सम शांत चेतनतत्त्वविषे विश्रामको पावत भये, अरु परमानंदको प्राप्त भये, अरु अपर सभा जो बैठी थी, सो भी वसिष्ठजीके वचन श्रवण करिकै सम आत्मसमाधिविषे स्थित हो रहे, बोलनेका व्यवहार शांत हो भया, पिंजरेमें पक्षी बोलते थे, सो भी शांत हो गए, वनके जो वानर थे, सो भी वचन सुनिकरि स्थिर हो रहे, सर्व ओरते शांति हो रही, जैसे अर्धरात्रिके समय भूमिलोक शांतरूप हो जाता है, तैसे सभाके लोक तूष्णीं हो रहे, अरु वचनोंको विचारने लगे कि, मुनीश्वरने क्या उपदेश किया है, एक घडीपयत शांति हो रही, तिसके अनंतर बहुरि वसिष्ठजी बोले॥ हे रामजी! अब तू सम्यक् प्रबुद्ध हुआ है, अरु अपने आपविषे स्थित भया है, जो कछु जाना है, तिसके अभ्यासका त्याग नहीं करना, इसीविष दृढ़ रहना॥ हे रामजी! संसाररूपी चक्र है, तिसका नाभिस्थान चित्त है, तिस चित्तनाभिक स्थिर हुए संसारचक्र भी स्थिर हो जाता है, इसी संसाररूपी चक्रका तीक्ष्ण वेग है, यद्यपि रोकता है तो भी फुरणे लगता है, ताते दृढ प्रयत्न बल करिकै, इसको रोकिये, संतके संग अरु सच्छास्त्रके वचन युक्ति बुद्धिकरि रोकता है॥ हे रामजी! अज्ञानकरि जो देव कल्पा है, तिसका त्याग करि अपने पुरुषार्थको आश्रय करहु, इसकरि परम शांतपद प्राप्त होता है, ब्रह्माते आदिलेकरि चींटीपर्यंत सब अज्ञानरूपी संसारचक्र है, सो असत्यरूप है, भ्रमकरिकै सत्यकी नाईं भासता, है, तिसका त्याग करहु॥ हे रामजी! असत्यरूप पदार्थविषे जो रागद्वेष करते हैं, सो मूर्ख हैं, तिनते चित्रका पुरुष