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योगवासिष्ठ।

धनको इकट्ठा कोऊ करता है, कोऊ अपर ले जाता है भोक्ता कोऊ अपर है, तब राग द्वेष किसका करिये, जो कछु प्रारब्ध है, सो अवश्य होता है, धनका व्यर्थ क्या यत्न करिये, बांधव अरु वस्त्र आते हैं, बहुरि जाते भी हैं, जैसे समुद्रविषे झपका आश्रय बुद्धिमान् नहीं लेते, तैसे जगत‍्के पदार्थका आश्रय ज्ञानवान नहीं लेते, भावअभावरूप परमेश्वरकी माया है, संसारकी रचना स्वप्नकी नाईं है, तिसविषे जो आसक्त होते हैं, तिनको सर्पिणीवत् दंशती है, धन बांधव जगत् वास्तवते मिथ्याही अज्ञानकरिकै सत्य भासते हैं॥ हे रामजी! जो आदि न होवै, अंत भी न रहै, अरु मध्यविषे भास, तिसको भी असत्य जानिये जैसे आकाशविषे फूल असत्य हैं, तैसे संसाररचना असत्य, जैसे संकल्प रचना असत्य है, जैसे गंधर्वनगर सुंदर भासता है, अरु नाश हो जाता है, जैसे स्वप्नपुर दीर्घ कालका भासता है, सो भ्रमरूप है तैसे यह जगत असत्यरूप भ्रममात्र है, संकल्परूप अभ्यासके वशते दृढताको प्राप्त भया है, कंध जो आकारवान् भासता है, सो आकारते रहित आकाशरूप है, अरु आत्माद सुषुप्तिकी नाईं अद्वैतरूप है, तिस सुषुप्तरूप पदते जब गिरता है, तब दीर्घरूप स्वप्नको देखता है॥ हे रामजी! अज्ञानरूपी निद्राकरि अपने स्वभावते जो गिरा है सो संसाररूपी स्वप्नश्रमको देखता है, जब अज्ञानरूपी निद्राका अभाव होवै, तब अपने आत्मराज्यपदको प्राप्त होता है, अरु निर्विकल्प मुदिता आत्मपदको प्राप्त होता है, जैसे सूर्यको देखिकरि कमल प्रफुल्लित होते हैं, तैसे ज्ञानकरि शुभ गुण फूलते हैं, आत्मारूपी सूर्य कैसा है सर्व दुःखते रहित है जो पुरुष निद्राविषे होता है सो सूक्ष्म वचनकरि नहीं जागता बड़े शब्द अरु जल डारनेकरि जागता है, सो मैं तुझको मेघकी नाई गर्जिकरि वचनरूपीजलकी वर्षा करी है, ज्ञानरूपी शीतलतासहित वचनहै तिन वचनोंकरिकै अव तू ज्ञानरूपी जागृत् बोधको प्राप्त भया है, ऐसे ज्ञानरूपी जगत‍्को भ्रमरूप देखेगा॥ हे रामजी! तुझको न जन्म है, न मृत्यु है, न कोऊ दुःख है, न कोऊ भ्रम है, सर्व संकल्पते रहित आत्मपुरुष