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कार्यकारणाकारणनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६४७) तते भासी है, तिसविषे जिनको स्वरूपका प्रमाद नहीं भया, तिनको सदा परब्रह्मका निश्चय रहता है, अरु जगत् अपना संकल्पमात्र भासता हैं, अरु जिनको स्वरूपका प्रमाद भया है, तिनको संस्कारपूर्वक जगत् भासता हैं, अपर संस्कार भी कछु वस्तु नहीं ॥ हे वधिक ! जो जगतही मिथ्या है तौ तिसका संस्कार कैसे सत् हो, परंतु ज्ञानवान्को इसप्रकार भासता है, अरु जो अज्ञानी हैं, तिनको स्पष्ट भासता है ।। हे वधिक। जैसे तुम संकल्पके रचे पदार्थको असत् जानते हौ, जैसे स्मृतिसृष्टिको असत् जानते हौ, जैसे स्वप्नसृष्टिको असत् जानते हौ, वैसे हम इस जाग्रत् सृष्टिको भी असत् जानते हैं, जैसे मृगतृष्णाका जल असत् भासता है, वैसे हमको यह जगत् असत् है, बहुरि कारण कार्य कर्म संस्कार हमको कैसे भासँ, अरु अज्ञानीको तीनों भासते हैं ॥ हे वधिक ! जब चित्तसंचित् बहिर्मुख होती है, तब जगत हो भासता है, अरु जब अंतर्मुख होती हैं, तब अपने स्वरूपको देखती है, जब आत्मतत्त्वका किंचन संवेदन फुरती है तब स्वप्न जगत हो भासता है, अरु जो ठहर जाती है। तत्र सुषुप्ति प्रलय हो जाती है, ऊरणेकी नाम सृष्टिकी उत्पत्ति है, अरु ठहरनेका नाम प्रलय है, जिसके आश्रय ऊरणा फुरता है सो शुद्ध सत्ता अव्यक्त निराकार है, सोई आकाररूप भासता है, अरु जो अकारण निराकार हैं, तिसविचे अकारण आकार भासता है, ताते जानता हैं कि वहीरूप है, अपर कछु नहीं, आकार भी निराकार है, सृष्टिही दृश्यरूप हो भासती है, जगत् आभासमात्र है, जैसे समुद्रका आभास तरंग होते हैं, तैसे आत्माका आभास जगत् है, सो आत्मानंद चिदाकाश है, अरु सर्व जगत्का अपना आप है ॥ वधिक उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! तुस जगत्को अकारण कहते हौ, सो कारणविना उत्पत्ति कैसे संभवती है, जो प्रत्यक्ष भास्ता है, अरु जो कारणकारकै उत्पत्ति कहौ, तौ स्वप्नवत् क्यों कहते हौ, स्वप्नसृष्टि तौ कारणविना होती है, ताते यह सृष्टि कारणसहित है, अथवा कारणते रहित अकारण है। सो कहौ । मुनीश्वर उवाच ।। हे वधिक ! यह जगत् आदि अकारण हैं, आत्माका आभासमात्र है। प्रथम कारणते रहित है, सो आत्माविर्षे