पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७४९

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(१६३०) योगवासिष्ठ । प्राप्त होता है, सो मनकी स्थिति दो प्रकारकी है, एक ज्ञानकी स्थिति है, अरु एक अज्ञानकी स्थिति है, जब प्राणी अन्न बहुत भोजन करते हैं तब नाडीके ऊपर अन्न जाय स्थित होता है, अरु प्राण ठहर जाते हैं, जब प्राण ठहरै तब मन भी जडीभूत हो जाता है, तिसका नाम सुषुप्ति है। सो नाडी कौन हैं, जिनके ऊपर अन्न जाय स्थित होता है, सो नाड़ी वही हैं, जिनके मार्ग जाग्रतविषे प्राण निकसते हैं, वासनासहित वही नाडी जब रोकी जाती हैं, तब मन सुषुप्त हो जाता है, यह अज्ञानीके मनकी स्थिति है, काहेते कि जड़ता संसारको लिये शीघ्रही बहुरे उठ आते हैं, जैसे पृथ्वीविषे बीज समय पायकार अंकुर ले आता है, तैसे वह संस्कारकारकै बार सुषुप्तिते उठता है, अरु जो ज्ञानवान् सम्यक्दर्शी हैं, तिनका चित्त चेतनतके लिये स्थित होता है, सो चेतनता दो प्रकारकी है, एक योगीको चेतनता है, जिस समाधिकार मनको स्थित किया है, सो समाधिनिष्ठ चित्त है, वह जडता नहीं, जैसे सुषुप्तिविषे जड़ता होती है, तैसे जड़ता नहीं, अरु ज्ञानवान् जीवन्मुक्तकी सम्यकज्ञानकारि चित्तकी वृत्ति स्थित है, उनका चित्त वासनाते रहित स्थित है, जिसका चित्त इस प्रकार स्थित है, तिस पुरुषको शांति हैं, अरु जिसका चित्त वासनासहित है, तिसको शांति कदाचित् नहीं प्राप्त होती, अरु दुःख भी नहीं मिटते, सो निर्वासनिक चित्त करणेको सम्यक्ज्ञानका कारण यह मेरा शास्त्र है, इसके समान अपर कोऊ नहीं ॥ हे रामजी ! यह जो मोक्षउपाय शास्त्र मैंने कहा है, तिसके विचारकरि शीघ्रद्दी स्वरूपकी प्राप्ति होवैगी, ताते सर्वदा इसका विचार कर्तव्य है, जब इसको भली प्रकार विचारेगा, तब चित्त निवसनिक हो जावैगा, अब वही प्रसंग जो वधिकको कहता है । हे वधिक ! जब मैं उस पुरुषके चित्तविषे प्राणके मार्ग प्रवेश किया, तब क्या देखौं कि इसके प्राण रोके गये हैं, अन्न करिकै जागृत नाडी जो फुरती थी सो रोंकी गई है, काहेते जो अन्न पचा नहीं, इस कारणते वह सुषुप्तिविषे हैं, तिसकी सुषुप्तिविषे मुझको भी अपना आप विस्मरण हो गया, जब कछुक अन्न पचा तब तिसके प्राण ऊरणे लगे, जब प्राण फुरे तब चित्तकी वृत्ति भी कछुक