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जीवन्मुक्तलक्षणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१६२९) तिनको तौ ऐसे भासता हैं, अरु अज्ञानीके निश्चयको हम नहीं जानते, जैसे सूर्य उलूकके अनुभवको नहीं जानता, अरु उलूक सूर्यके निश्चयको नहीं जानता, तैसे ज्ञानी अज्ञानीका निश्चय भिन्न होताहै,अरु शुद्ध चिन्मात्र आकाशविषे जगत्भ्रम कोऊ नहीं, अरु ऊरणे भावकारकै अपने चेतन वपुको ज्ञानविनाही मनभावको प्राप्त होता है, तब मन आत्मसत्ताके आश्रय होकरि प्राणवायुको अपना आश्रयभूत कल्पता है, कि मेरा प्राण है ॥ हे रामजी ! बहार जैसी जैसी मन कल्पना करताहै, तैसे तैसे देह इंद्रियां जगत् भासते हैं, परमब्रह्म सर्वशक्तिसंपन्न है, तिसविरें जसी जैसी भावना करि मन फुरता है, तैसा रूप होभासता है, वास्तवते अपर कछु नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है,मनका फुरणा जैसे जैसे दृढ हुआ है,तैसे तैसे देह इंद्रियां जगत् भासनेलगता है, जैसे स्वप्नविषे कल्पनामात्र जगत् भासता है, तैसे यह जाना॥हे रामजी जेते कछु विकल्प उठते हैं, सो सब मनके रचे हुये हैं, जब मन उदय होता है, तब यह ऊरणा होता है, कि यह पदार्थ सत्य है,यह असत्य है, जब चित्तशक्तिको मनसाथ संबंध होता हैं, तब प्रथम प्राण उदय होते हैं, प्राणको ग्रहण कारकै मन कहता है, मैं जीव हौं, प्राणही मेरी गति हैं, प्राणविना मैं कहा था, अरु बहुरि कहता है; जब प्राणका वियोग होवैगा तब मैं मर जाऊंगा, बहार न रहूंगा, बहुरि ऐसे कहता है, मुआ हुआ भी मैं जीवगा । हे रामजी ! जबलग चाहिये तबलग यह तीन विकल्प उठते हैं, अरु संशयवालेको न इस लोकविर्षे सुख है, न परलोकविषे सुख है, जबलग आत्मबोधका साक्षात्कार नहीं हुआ, तबलग चित्त निर्वाण नहीं होता, अरु तीन विकल्प भी नहीं मिटते ॥ हे रामजी । मनके मरनेका उपाय आत्मज्ञानते इतर कोऊ नहीं, अरु मनके शाँत हुयेविना कल्याण नहीं होता, दोनों उपायकारे मन शांत होता है, मनकी वृत्ति स्थित करनी, अरु प्राणस्पंद रोकना, जब मन स्थित होताहै तब प्राण रोका जाता है, अरु प्राणके स्पंद रोकेते मन स्थित होता है, अरु जब प्राण क्षोभते हैं, तब चित्त भी क्षोभता है, तब आध्यत्मिक आधिभौतिक तापकार अग्नि जलता है, अरु मनके स्थित करणेते परम सुख