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(१६०८) योगवासिष्ठ । मैं इसके इष्टका ध्यान कारकै विद्यमान करता हौं, तिसकर इसका कार्य सिद्ध होवैगा ॥ वाल्मीकिरुवाच ॥ हे अंग ! इसप्रकार कहकर : वसिष्ठजीने कमंडलु हथुिविषे लेकर तीन आचमन किये,अरु पद्मासन बांधकारि नेत्र मँदि लिये, ध्यानविषे स्थित होकर अग्निका आवाहन किया अरु कहा, हे वह्नि ! यह तेरा भक्त है, इसकी सहायता कर, इस के ऊपर दया.कर, तुम संतका दयालु स्वभाव है, जब ऐसे वसिष्ठजीने कहा तब संभाविषे बड़े प्रकाशको धरे अग्निकी ज्वला प्रगट भई, काष्ठ अंगारते रहित बड़े प्रकाशको लिये पड़ी जलै, जब ऐसी अग्नि जागी, तब मृग देखकर बहुत प्रसन्न भयो, अरु चित्तविषे बड़ी भक्ति उत्पन्न भई, तब वसिष्ठजीने नेत्र खोलकर अनुग्रहसहित मृगकी ओर देखा, तिसकार संपूर्ण पाप उसके दग्ध हो गये, अरु वसिष्ठजीने अग्निसे कहा कि ॥ हे भगवन् ! वहि ! यह तेरा भक्त है, अपनी पूर्वकी भक्ति स्मरण कारकै इसपर दया करहु, इसके मृगशरीरको दूर करके इसको विपश्चित शरीर देवहु, जो यह अविद्या भ्रमते मुक्त होवै ॥ हे राजन् ! इसप्रकार वसिष्ठजीने अशिसे कह रामजीसे कहत भये ।। हे रामजी । अब यह मृग अग्निविषे प्रवेश करेगा, तब इसका मनुष्यशरीर हो जावैगा, ऐसे वसिष्ठजी कहते थे, कि अग्निको मृग देखिकार एक चरण पाछेको धरा, अरु उछलकर अग्निविषे आय प्रवेश किया, जैसे बाण निशानविष आय प्रवेश करते हैं, तैसे प्रवेश किया ॥ हे राजन् ! तब उस मृगको खेद कछु न भया, उसको अग्नि आनंदवान् दृष्ट आया, तब उसका मृगशरीर अंतर्धान हो गया, अरु महाप्रकाश मनुष्य शरीरको धारे अग्निते निकसा, जैसे पटके ओटसों स्वांगी स्वांग धारि निकसि आता है, तैसे निकस आया, भले वस्त्रको पहिरे हुये शीशपर मुकुट, कठविष रुद्राक्षकी माला, अरु यज्ञोपवीत हुआ, अग्निवत प्रकाश तेजवान् संभाविषे जो बैठे थे, तिनते भी अधिक तेज मानौ अग्निको भी लज्जित किया है, जैसे सूर्यके उदय हुये चंद्रमाका प्रकाश लज्जित होता है, तैसे सर्वते जल जल हो गया, तब जैसे समुद्रसों तरंग निकसिकार लीन हो जाता है, तैसे अग्नि अंतर्धान हो गया, तिसको देखिक