पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७१९

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( १३००) यौगवासिष्ठ । द्विशताधिकविंशतितमः सर्गः २२०. विपश्चितोपाख्यानवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! वह राजा विपश्चित बहुरि क्या करत भये? वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जो उनकी दशा हुई है सो तु श्रवण करु, पश्चिम दिशाका विपश्चित वनविषे विचरता फिरता था, सो एक मत्त हस्तीके वश पडा,तिसने पहाडकी कंदराविषे मार डारा, अरु दूसरे विपश्चितको राकडी ले गया, तिसने वडवाग्निविषे डाार दिया, वहीं अग्निने भक्षण कर लिया, अरु तीसरे विपश्चितको एक विद्याधर स्वर्गविषे ले गया, उसने इंद्रको मान न किया, तिसको शाप दिया, वह भस्म होगया, इसी प्रकार चौथा भी हुआ, उसके मच्छने अष्ट टुकड़े कर डारे, जैसे प्रलयकालविषे लोक भस्म हो जावे, तैस चारोही विपश्चित मारि गये, तब उनकी संवत् आकाशरूप हुई, परंतु इनके विषे जो जगत् देखनेका संस्कार था, तिसकार उनकी आकाशरूप संवित् बहुरि आनि फुरी, तिसकार जाग्रत् भासने लगे, पृथ्वी द्वीप समुद्र स्थावर जंगमरूप जगतूको देखत भये, अरु अंतवाहक शरीर साथ चेष्टा करने लगे, तिनसों एक पश्चिम दिशाका विष्णु भगवान्के स्थानविषे मुआ निर्वाण होगया, तिसकी संविविषे सर्व अर्थ शून्य हो गये, वह तहां मुक्त हुआ, अरु एक मच्छके उदरविषे सेहस्र वर्षपर्यंत रहा, तिसते उपरांत निकसा,बारे एक देशका राजा हुआ, अरु तहां राज्य करने लगा, एक चंद्रमाके निकट आया, तहाँ वह मारके स्वर्गविषे चंद्रमाके लोकको प्राप्त हुआ, अरु एक बहता समुद्रके पाटको प्राप्त हुआ, आगे चौराशी हजार योजन पृथ्वी भूत तिसको लँघता गया, इसी प्रकार चारों बहुरि जीवते भये समुद्र वन पर्वतको लँघते गये, सबके आगे दश सहस्र योजन स्वर्णकी पृथ्वी आई, तहां देवताके विचरनेके स्थान हैं, तिनको भी लंघते गये, आगे लोकालोक पर्वत आया, जिसने सर्व पृथ्वीको आवरण किंया है, जैसे वृक्षके वनका आवरण होता है, तैसे तिसने पंचाशतकोटि योजन पृथ्वीको आवरण किया है, पचाश हजार योजन लोकालोक पर्वत