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जीवन्मुक्तलक्षणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ३. (१५९९) परंतु दोनों इनको तुल्य हैं, इस कारणते खेदसों रहित होकर अपने कानविषे विचरते हैं, सो जीवन्मुक्त पुरुष हैं ॥ हे रामजी ! राज्यविषे बड़े क्षोभ होते हैं, सो राजा जनक आनंद सहित राज्य करता है, अरु जीवन्मुक्त है, प्रह्लाद बलि वृत्रासुर अरु मुर इनते आदि लेकर जो दैत्य जीवन्मुक्त हुये हैं, समताभावको लिये खेदते रहित नानाप्रकारकी चेष्टा करत भये हैं,परंतु अंतरते शीतल जीवन्मुक्त रहे हैं,राजा नल अरु दिलीप अरु मांधाताते लेकर जो हुये हैं, समताभावको ले राज्य किया है, सो जीवन्मुक्त हैं, ऐसे अनेक राजा हुये हैं, राज्यविषे रागवान् भी दृष्ट आये हैं। परंतु अंतर रागद्वेषते रहित शीतलचित्त रहे हैं । हे रामजी । ज्ञानी अरु अज्ञानीकी चेष्टा तुल्य होती है, परंतु एता भेद है कि ज्ञानीका चित्त शांत है, अरु अज्ञानीका चित्त क्षोभविषे है, इष्टकी प्राप्तिविष हर्षवान् होता है, अनिष्टकी प्राप्तिविषे द्वेष करता है; ग्रहण त्यागकी इच्छा कर जलता है, संसार उसको सत्य भासता है, अरु जिसका चित्त शांत हो गया है, तिसके अंतर न राग है, न द्वेष है, स्वाभाविक शरीरकी जो प्रारब्ध है सो होती है, तिसविषे कछु अपना अभिमान नहीं होता, तिसके निश्चयविषे सेब आकाशरूप है, जगत् कछु बना नहीं भ्रममात्र है, जैसे आकाशविष नीलता भ्रममात्र है, अरु दूर नहीं होती तैसे यह जगत् भ्रमकारकै भासता है परंतु है नहीं, जैसे आकाशविषे नाना- कारके तरुवरे भासते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, जैसे काष्ठकी पुतली काष्ठरूप होती है, तैसे जगत् भ्रमरूप है, जो कछु भ्रमते इतर भासता है, सो सब भविष्यत् नगरविषे असत् है, अरु जो कछु तुझते दृष्ट आता है सो कछु नहीं, सर्व कलनाते रहित शुद्ध संवित् जडताते मुक्तस्वभाव एक अद्वैत आत्मसत्ता स्थित है, केवल आकाशरूप है, तिसविषे जगत् भी वहीरूप है, पाषाणकी शिलावत् धन मौन है, तूभी तिसी रूपविषे स्थित हो ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निवणप्रकरणे जीवन्मुक्तलक्षणवर्णनं नाम द्विशताधिकैकोनविंशतितमः सर्गः ॥२१९ ॥