पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७०७

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(१५८८) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकैकोनविंशतितमः सर्गः २१९. जीवन्मुक्तलक्षणवर्णनम् । वाच ॥ हे रामजी। जब इसप्रकार राजा विपश्चित समुद्रपार जाय प्राप्त भये, तब उनके साथ जो मंत्री पहुँचे थे, सो राजाको सब स्थान दिखाते भये, कैसे स्थान हैं, बड़े गंभीर स्थान अरु बड़े गंभीर • समुद्र, जो पृथ्वीके चौफेर वेष्टित हैं, अरु बडे तमाल वृक्ष अरु बावलिया। पर्वतकी कंदरा हैं, तलाव हैं, नानाप्रकारके स्थानोंको देखत भये, ऐसा थान राजाको मंत्री दिखाइकार कहत भये ॥ हे रामजी ! तीन पदार्थ बड़े अनर्थके कारण , अरु परमसारका कारण हैं, एक तौ लक्ष्मी, अरु दूसरा देह आरोग्य अरु तीसरी यौवनावस्था; जो पापी जीव हैं सो लक्ष्मीको पापविषे लगाते हैं, अरु देह अरोगकार विषयको सेवते हैं, अरु यौवन अवस्थाविषे भी सुकृत नहीं करते, पाप करते हैं, अरु जो पुण्यवान हैं, सो मोक्षविषे लगाते हैं, लक्ष्मीकरि यज्ञादिक शुभ कर्म करते हैं, देह अरोगकरि परमार्थ साधते हैं, यौवनअवस्थाविषे भी शुभ कर्म करते हैं, पाप नहीं करते ॥ हे राजन् ! समुद्र अरु पर्वतके किसी ठौरविषे रत्न होते हैं, किसी ठौरविषे दुर्दुर होते हैं, तैसे संसाररूपी समुद्रविषे कहूँ रत्नोंकी नई ज्ञानवान होते हैं, अरु अज्ञानीरूपी दुर्दुर होते हैं । हे राजन् । यह समुद्र कैसा है, मानो जीवन्मुक्त है, काहेते जो जलकर भी मर्यादा नहीं छोडता, अरु रागद्वेषते रहित है, किसी स्थानविषे दैत्य रहते हैं; कहूं पंखसंयुक्त पर्वत हैं, कहूं वडवाग्नि है; कहूँ रत्न हैं, परंतु ससुइको न किसी स्थानविषे राग है, न द्वेष है, जैसे ज्ञानवान्को किसीविषे रागद्वेष नहीं, परंतु सबमें ज्ञानवान् कोऊ विरला होता है, जैसे जिस बांसते मोती निकसता है, सो बाँस विरला होता हैं, अरु जिस सीपमें मोती निकसता है, सो सीप भी विरली होती हैं, तैसे तत्त्वदर्शी ज्ञानवान् कोऊ विरला होता है। हे रामजी ! संपूर्ण रचना यहाँकी देख,पर्वत कैसे हैं, जिनके किसी स्थानविषे पक्षी रहते हैं, किसी स्थानविषे विद्याधर हैं,