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चिरंजीविहेतुकथनवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

तौ भी शरीर है, अरु संकोचिये तौ भी शरीर है, इसप्रकार मैं सर्वात्मा आपको जाना है, ताते मुझको दुःख कोऊ नहीं, मेरी बोली अरु निश्चय स्निग्ध अरु कोमल सबको हृदयगम्य है, सर्वत्र जो ऐसे देखता हौं, इस कारणते निर्दुःख जीता हौं, चरणते आदि मस्तकपर्यंत देहविषे मुझको ममता नहीं, अहंकाररूपी चीकड़सों निकसा हौं, इस कारणते अरोग जीता हौं, कार्यकर्त्ता अरु भोजनकर्त्ता भी दृष्ट आता हौं, परंतु मेरे मनविषे निष्कर्मता दृढ़ है, इसकारणते निर्दुःख जीता हौं॥ हे मुनीश्वर। समर्थताकरिकै कार्य करौं, तो भी मुझको अभिमान नहीं अरु दरिद्री होऊं, तौ भी संपत्ति सुखकी इच्छा नहीं, किसीविषे आसक्त नहीं होता, इस कारणते अदुःख जीता हाँ, इस असत्यरूप शरीरके नाश हुए अभिमान नाश नहीं होता, अरु भूतका समूह सब असत्यरूप है, आत्मा सत्यरूप है, ऐसे जानिकरि मैं स्थित हौं, इस कारणते सुखसों जीता हौं, आशारूपी फांसीते मुक्त चित्तकी वृत्ति समाहत हुई है, अनात्मविषे आत्मअभिमानकी वृत्ति नहीं फुरती, इस कारणते सुखी जीता हौं॥ हे मुनीश्वर! मैं जगत‍्को असत्य जाना है, अरु आत्माको सत्य हाथविषे बेलफलवत् प्रत्यक्ष जाना है, इस जगत‍्विषे सुषुप्त प्रबुद्ध हौं, तिस कारणते निर्दुःख जीता हौं, सुखको पायकरि सुखी नहीं होता, दुःखको पायकरि दुःखी नहीं होता, सर्वका परममित्र हौं, इस कारणते मैं निर्दुःख जीता हाँ, आपदाविषे अचलचित्त हौं, संपदाविषे सब जगत‍्का मित्र हौं, भावअभावकरि ज्योंका त्यों हौं, इस कारणते सदा सुखी जीता हौं, न परिच्छिन्न अहं मैं हौं, न कोऊ अन्य है, न कोऊ मेरा है, न मैं किसीका हौं यह भावना मेरे चित्तविषे दृढ़ है, तिस कारणते सुखी जीता हौं, बहुरि कैसा हौं, मैही जगत हौं, मैंही आकाश हौं, देश काल क्रिया सब मैंही हौं, यह निश्चय मुझको दृढ़ है, ताते अरोग जीता हौं घट भी चेतन है, पट भी चेतन है, रथ भी चेतन है, यह सब चेतनतत्त्व है, यह निश्चय मुझको दृढ़ है, इस कारणते अदुःख जीता हौं॥ हे मुनिशार्दूल! यह सब मैं तुझको कहा