पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९७

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(,१५७८) योगवासिष्ठ । फूल फल गुच्छे वृक्ष जिसके आश्रय बढ़ते हैं, सो चिदाकाश है, अरु रूप अवलोकन मनस्कार इन तीनोंका जहां अभाव है,ऐसी शुद्ध संवित है, सो चिदाकाश है,अरु पृथ्वी पर्वत नदियां सर्वका आश्रय हैं, सोचिदाकाश है, अरु द्रष्टा दृश्य दर्शन यह तीनों जिसते उपजे हैं,बहुरि जिसविषे लीन् होते हैं, एसी जो अधिष्ठानसत्ता है, सो चिदाकाश है, अरु जिसते सर्व उपजते हैं, अरु जो यह सर्व हैं, ऐसा जो सर्वात्मा है, सो चिकाकाश है, अर्धरात्रिको जो उठता है, इंद्रियोंकी चपलताका विषयते अभाव होता है; अफुरसत्ता तिसकालमें होती है,सो चिदाकाश है । हे रामजी । जिस संवितविषे स्वप्नसृष्टि फुरती है,बहुर जाग्रत् भासती है, दोनों के करनेहारेमें शोभता है,सो चिदाकाश है, अरु जैसा ऊरणा होताहै, तैसाही जगत्विषे भासता है,वही इष्टा दर्शन दृश्य होकर भासता है, दूसरा कछु नहीं, अरु आत्मरूपी सूत्र हैं, अरु असत् संत् जगरूपी माणिक जिसविषे पिरोये हुए हैं, जिसके आश्रय इनका फुरणा होता है, सो चिदाकश६ ॥ हे रामजी । जिसके अश्रय निमेषविषे जगत् उपजता है, अरु उन्मेघविषे लीन हो जाता है, ऐसी जो अधिष्ठानसत्ता है, तिसको चिदाकाश जान, यह सब जगत् मिथ्या है, भ्रांतिकारिकै भासता है, जैसे मरुस्थलकी नदी भासती है, इसते जो रहित है, जिसविषे संकल्प विकल्प क्षोभ नहीं, अरु सदा अपने आपविषे स्थित है, दुःखते रहित निर्विकल्प सत्ता है, सो चिदाकाश है ॥ हे रामजी । नेतिनेतिकार जो पाछे अनाद्य पद शेष रहता है, तिसको तू चिदाकाश जान, अरु आत्मसत्ता शुद्ध चेतन सबका अपना आप है, सबका अनुभवरूप होकर प्रकाशता है, जैसा तिसविषे फुरणा होता है, जो यह ऐसे है, तैसा हो भासता है, सो चिदाकाशरूप है, ताते शुद्ध आत्मसत्ताही ऊरणेकार जगदुरूप हो भासती है, जैसे जाग्रतके अंतविषे अद्वैतसत्ता होती है,बहुरि तिसते स्वप्न सृष्टि भासि आती है, तौ स्वप्नसृष्टि वास्तव कछु उपजी नहीं, वही अनुभव स्वप्नसृष्टि हो भासती है, तैसे यह जगत जो कार्यरूप दृष्ट आता है, सो अविद्याकरिकै भासता है, वास्तव कछु उपजा नहीं, जैसे स्वप्नसृष्टि अकारण भासती है, तैसे यह सृष्टि अकारण है। ब्रह्माते आदि