पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६९१

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(१५७२) यौगवासिष्ठ । इंतर कछु हुआ नहीं, सब असत्यरूप है, जैसे स्वप्नविर्षे नदी पर्वत दृष्ट आते हैं, परंतु कछु उपजे नहीं अनुभवसत्ता ज्योंकी त्यों स्थित है, तैसे ब्रह्माते आदि तृणपर्यंत जगत् सबै असत्यरूप है, जिसको तू ब्रह्मा कहता है, सो वास्तव कछु उपजा नहीं, तो जगतकी उत्पत्ति मैं तुझको कैसे कहौं, जैसे मरुस्थलकी नदी ही उपजी नहीं, तिसविषे मच्छियां कैसे कहिये, तैसे आदि ब्रह्म नहीं, तिसविषे जगत् उपजा कैसे कहिये १ केवल आत्मचेतनसत्ता सदा अपने आपविषे स्थित है, अरु यह जगत् भी वही रूप है परंतु अज्ञानकारकै विपर्ययरूप भासता है जैसे स्वप्नविषे पुरुष अनुभवरूप होता है, अरु अपने प्रमादकारकै नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं, पर्वत जल पृथ्वी जन्ममरणादिक विकार देखता है, परंतु हुआ नहीं, आत्मसत्ता ज्योंकीत्यों स्थित है,अज्ञानकारकै विषयरूप भासतेहैं तैसे यह जगत् भी जान,आत्मसत्ताते इतर कछु नहीं, सब चिदाकाशरूप है,अज्ञानकारकै आत्मसत्ता जगतरूप हो भासती है। ताते हे रामजी ! जिसके अज्ञानते यह जगत् भासता है, अरु जिसके ज्ञानकोरे निवृत्त हो जाता है, ऐसा जो आत्मतत्त्व है, तिसके पानेका यत्न कर, सो कैसा पद है, नित्य शुद्ध परमानंदस्वरूप है, अरु सदा अपने स्वभावविषे स्थित है, सो तेरा अनुभवरूप है, जो सदा अनुभवकारकै प्रकाशता है, तिसविषे स्थित होने में क्या कायरता करनी ॥ हे रामजी । जेता कछु प्रपंच है, सो भ्रीतिमात्र हैं, जैसे जेवरीविषे सर्प भ्रांतिमात्र हैं, तैसे आत्माविषे जंगत् भ्रममात्र हैं, तिसको त्यागिकार अपने स्वभावविवे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सर्वपदार्थाभाववर्णनं नामत्रयोदशाधिकद्विशततमः सर्गः ॥ २१३॥ चतुर्दशाधिकदिशततमः सर्गः २१४. जागृत्स्वनैकताप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! जिसप्रकार यह जगह आभास फुरा है। अरु भासता है, सो सुन,आदि जोशुद्ध है, अचिंत चिन्मात्र है,तिसविषे