पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८५

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(१५६६) योगवासिष्ठ । नहीं करता, मृत्यु समय जब जीवत्वभाव नष्ट हो जाता है, तब मृतक होता है, जो ऐसे होवै तौ परलोकका अनुभव न करै सो ऐसा नहीं, जब शरीरात होता है तब सब अवस्थाको भी जानता है, बहुरि परलोकविषे शब्द होता है, तिसका अनुभव करता है, अपने कर्मके अनुसार सुख दुःख भोगता है, अरु देशस्थानको प्राप्त होता है, यह वार्ता शास्त्रकार भी प्रसिद्ध है, जो वेद शास्त्र पढ़े करते हैं, अरु अनुभव करके भी प्रसिद्ध है, कि मृतकको किसने जाना, अरु अभावको किसने जाना, जिसने जाना सो आत्मा हैं, एक अखंड है ताते ॥ हे रामजी ! शरीरके नाशविषे आत्माका नाश नहीं, सो नित्य शुद्ध है। जैसा जैसा निश्चय उसविषे होता है, तैसाही हो भासता है, जैसा मिलता है, तैसा प्रकाशता है, ऐसा जो सत्य आत्मा है, सो किसीविषे बंधमान नहीं होता, जैसे जेवरीविषे सर्प आकार भासता है, सो जेवरी सर्प तो नहीं हो जाती, सर्प कल्पितका अभाव हो जाता है, अरु जेवरी ज्योंकी त्यों रहती है, तैसे आत्मसत्ता आकार ही भासती है परंतु आकार तो नहीं होती, आकारका अभाव हो जाता है अरु आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों रहती है, इसी कारणते बंधमान नहीं होती, ऐसी आत्मसत्ताविषे जो विकार भासते हैं, सो भ्रममात्र हैं, अरु भ्रांति हीकारि दुःख पाते हैं ॥ हे रामजी ! यह जगत् आभासमात्र हैं, तिस आभासमात्रविर्ष जो राग द्वेष आदिक फुरते हैं सो तिनकी निवृत्तिका उपाय मैं तुझको कहता हौं, अरु जो कछु उपदेश मैंने किया है, तिसके विचारनेकर भ्रांति निवृत्त होजावेगी, अरु आत्मपकी प्राप्ति होवैगी, अभ्यासविना आत्मपकी प्राप्ति चाहे तो कदाचित न होवैगी, जब वारंवार अभ्यास करेगा, तब द्वैतभ्रम मिटि जावैगा, अरु आत्मपद प्राप्त होवैगा, जिसका नित्य अभ्यास करता है, अरु यत्र भी तिसका करता है, सो प्राप्त होता है, वह कौन पदार्थ हैं, जो अभ्यासकार प्राप्त न हो। जो थककर फिरै नहीं, अरु दृढ अभ्यास करे, तौ प्राप्त होता है; राज्यकी लक्ष्मी तब प्राप्त होती है, जब रणविषे दृढ़ होकार युद्ध करता है, तब जय होती है, अरु सुखते कहै मेरी जय होवे, तब तो नहीं होती, तैसे