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परमोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१५५७) था, किसीका त्याग करता था, तिनकरि तपता था, जब तिनते छूटा तब बडा आनंद हुआ, अरु जो सर्व चिकाशरूप है, तो भी अपना आप आनंदरूप है, दुःख कछु न हुआ ॥ हे रामजी ! एक प्रमादकार दुःख होता है, अपर किसीप्रकार दुःख नहीं होता, यह जगत् सब आत्मरूप है, जो आत्मरूप हुआ तौ दुःख कैसे होवै, अरु जो तू कहै। मैं अपने कर्मते डरता हौं, परलोकविषे मुझको भयका कारण होवैगा ऐसे जान, कि बुरे कर्मका दुःख यहाँ भी होता है, अरु परलोकविषे भी होवैगा, ताते बुरे कर्म मत करु, मैं तुझको ऐसा उपाय कहता हौं, जिसकार सर्व दुःख तेरे नष्ट हो जावें, सोउपाय यह जो कहौ मैं नहीं अथवा ऐसे जान कि; सर्व मैंही हौं, सर्व वासना त्यागिकर आपको अविनाशी जान अरु आत्मसत्ताविषे स्थित होइ, यह जगह भी सब तेरा स्वरूप है, जब ऐसे आत्माको जानैगा, तब शरीरके त्याग कियेते भी दुःख कौऊ न रहेगा, अरु शरीरके होते भी दुःख कहूँ नहीं, जब पूर्व शरीरको त्यागिकार नूतन जन्म लिया, तब भी आनंद हुआ, परम शांति प्राप्त भई, अरु जो चिदाकाशरूप है तो भी परम आनंद हुआ । हे रामजी। सर्व प्रकार आनंद है, परंतु भ्रांतिकारिकै दुःख भासताहै, जब स्वरूपका साक्षात्कार होवैगा, तब सर्वं जगत् ब्रह्मानंदस्वरूप भासेगा । हे रामजी! जिसको आत्मसत्ताको प्रकाश है, सो पुरुष सदा आनंदविषे मग्न रहता है, अरु प्रकृत आचारको भी करता है। परंतु इष्ट अनिष्टकी प्राप्तिविषे स्वरूपते चलायमान कदाचित् नहीं होता, जैसे सुमेरु पर्वत वायुकार चलायमान नहीं होता तैसा ज्ञानी इष्ट अनिष्टविर्षे चलायमान नहीं होता परम गंभीरताविषे रहता है, ताते जो कछु आत्माते इतर उत्थान होता हैं, तिसको त्यागिकार अपने स्वभावविषे स्थित होहु, जो चिन्मात्रसत्ता शरत्कालके आकाशवत् निर्मल है, जब ऐसे स्वच्छ केवल चिन्मात्रका अनुभव होवैगा, तब जगत् द्वैतरूप होकर न भासेगा, व्यवहारविषे भी द्वैत न फुरैगा । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमोपदेशवर्णनं नाम द्विशताधिकैकादशः सर्गः ॥२११॥ जन्म लिया तब भी और जब पूर्व तो भी परम आ जी चिदाको है, जब रामजी। स - -- -