पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६७५

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| योगवासिष्ठ । शिव, चिदाकाश, ब्रह्म, अहंब्रह्म अस्मि कहते हैं, एक कहतेहैं, शून्यही रहता है. एक कहते हैं, अस्तिपद रहता है । हे रामजी ! यह सर्व संज्ञा आत्मसत्ताकी हैं, सो आत्मसत्ता अपनाही आप स्वरूप है, सो मैं आत्मा हौं, यह अंग जो मेरेसाथ इष्ट आते हैं, इनको दृष्ट पदार्थसाथ लेपन करिये अथवा चूर्ण करिये तो मुझको हर्ष शोक कछु नहीं, इनके बढ़नेकार मैं बढ़ता नहीं, इनके नष्ट हुए मैं नष्ट नहीं होता ॥ हे रामजी ! तीन शब्द होते। हैं, जो मैं जन्मा हौं, अरु जीवता हौं, अरु मौंगा, जो प्रथम न होवे, अरु उपजे तिसको जन्म कहते हैं, मध्यविध जीवता कहते हैं, बहुवारि नाश होवे तिसको मृतक कहते हैं, सो आत्माविषे तीनों विकार नहीं, आत्मा उपजा भी नहीं, काहेते कि, आदिही सिद्ध है, अरु मृतक भी नहीं होता काहेते कि अविनाशी है, चेतन आकाश सबका अधिष्ठान है, कालका भी अधिष्ठान है, बहुरि तिसका नाश कैसे होवे, अर्थ यह कि, उदय अस्तते रहित है, जिसविषे देश काल जगत्का किंचन होता है, तिसकर आत्माका नाश कैसे होवे ? ताते आत्मा अविनाशी है । हे रामजी! जिस वस्तुको देशकालका परिच्छेद होता है, तिसका नाश भी होता है, सो देश काल वस्तु तीनों आत्माविषे कल्पित हैं, जैसे सूर्य की किरगोंविषे जल कल्पित होता है, तैसे आत्माविषे तीनों कल्पित हैं, कल्पित वस्तुसाथ सत्यका अभाव कैसे होवै, ताते आत्मा अविनाशी हैं, अरु अद्वैत है, तिसविघे दूसरी वस्तु कछु नहीं, जैसे शून्य स्थानविषे वैताल कल्पित होता है, तैसे आत्माविषे जगत् कल्पित है, तिस अभावरूप जगविषे प्रमादकारकै एकको अभाव जानता है, एकको सद्भाव जानता है, जब इस निश्चयको त्यागिकार अंतरमोक्ष होवे, तब इसको शांति प्राप्त होवैगी, अरु विचार कारकै देखिये तो इस संसारविषे दुःख कहूं नहीं, जो मरिकै बार जन्म लेता है, तो भी दुःख कहू न हुआ, काहेते जो शरीर वृद्धिभावको प्राप्त होकार क्षीण भया, तब तिसको त्यागिकार नूतनको ग्रहण किया तो उत्साह हुआ, जो मृतक होकार बहुरि नहीं उपजता तो भी आनंद हुआ, काहेते जबलग जीता था तबलग इसको ताप था तिसीका भाव जानता था, किसीको ग्रहण करता