पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६७४

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परमोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१५५५) अचारको करता हैं, तिसको शास्त्रका दंड नहीं रहता, परम शांतरूप विराजता हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे नास्तिकवादुनिराकरणं नाम द्विशताधिकदशमः सर्गः ॥ २१० ॥ द्विशताधिकैकादशः सर्गः २११, परमोपदेशवर्णनम् । वसिष्ट उवाच ॥ हे रामजी | मैं चिदाकाशरूप हौं, अरु दृश्य दर्शन द्वष्टा, त्रियुटी जो भासती हैं, सो भीचिदाकाशरूप है, आत्मसत्ताही त्रिपुटीरूप हो भासती है, दूसरी वस्तु कछु नहीं, अरु नास्तिकवादी कहते हैं, कि परलोक कोऊ नहीं, अर्थ यह कि जो आत्मसत्ता कोऊनहीं, सो मूर्ख हैं । हे रामजी ! जो अनुभव आत्मसत्ता न होवैतौ नास्तिक किस करि सिद्ध होवे, जिसका नास्तिकवाद भी सिद्ध होता है, सो आत्मसत्ता है, जो इष्टअनिष्ट पदार्थविषे राग द्वेष करते हैं, अरु आत्माको नाश कहते हैं, सो महामूर्ख हैं, जैसे जागृतके प्रमाकारकै स्वप्नमें इष्टनिष्टविषे राग द्वेष करता हैं, इष्टको ग्रहण करता है, अनिष्टको त्यागता है, अरु जागेते सर्व अपनाही स्वरूप भासता है, ग्रहण त्याग राग द्वेष किसी पदार्थविषे नहीं रहता, तैसे आत्माके अज्ञान कारकै किसी पदार्थविषे राग करता है, किसीविषे द्वेष करता है, जब आत्मज्ञान होता है, तब सब अपनाही स्वरूप भासता है, रागद्वेष किसीविषे नहीं रहता, अरु चित्तके ऊरणेकार जगत् उत्पन्न होता है, चित्तके शांत हुए जगत् लय हो जाता है, ताते जगत् मनविषे स्थित है, सो मन आत्माके अज्ञानकारि हुआ है, जब आत्मज्ञान हुआ तब मनुष्य देवता हस्ती नाग आदिक •स्थावर जंगम सब जगत आत्मरूप भासताहै, राग द्वेष किसीविषे नहीं रहता, अरु नास्तिकवादी जो नास्ति कहते हैं, सो नास्तिको साक्षी सिद्ध होता है, जिसका नास्ति भी सिद्ध होता है, सो अस्ति आत्मपद है, तिस अस्ति अनुभव एते नाम शास्त्रकार कहते हैं, सतु, आत्मा, विष्णु,