पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६७३

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( १५५४ ) योगवासिष्ठ । है, सो बालक है, जैसे आकाशविषे बादलके चक्र हस्ती घोडे आकार भासते हैं अरु जैसे समुद्रविषे तरंग भासते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, सो द्वैत कछु नहीं, जैसे स्वप्नके नगर अपने अपने अनुभवविषे स्थित होते हैं, अरु बाहर द्वैतकी नाईं भासते हैं, सो आभासमात्र हैं, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, सो आभासमात्र है, वास्तव कछु नहीं, जिसको आत्मसत्ताका अनुभव हुआ है, तिसको जगत्के शब्द अर्थ राग द्वेष किसीकी कल्पना नहीं रहती, पुण्य पाप फल तिसको स्पर्श कछु नहीं करता । हे रामजी ! ज्ञानसंवत्का नाश कदाचित् नहीं होता, ताते विश्व भी अनुभवरूप है, इस जगतका निमित्तकारण अरु समवायिकारण कोङ नहीं, काहेते कि अद्वैन है, अरु जो तू कई प्रत्यक्ष घटादिक समवाय अरु निमित्तकारण उपजते दीखते हैं, तौ जैसे स्वप्नविषे कारण कार्य अणहोते भासते हैं, तैसे यह भी जान, प्रथम स्वप्नविषे बने हुए दृष्ट आते हैं, पाछे कारणकार होते दृष्टि आतेहैं तैसे यह भी जान, केवल भ्रममात्र है, जैसे स्वप्नसृष्टिका जागे हुए अभाव होता है, तैसे ज्ञानकर इसका अभाव हो जाता है, यह दीर्घकालका स्वप्न है, ताते जागृत् कहता है, जैसे स्वप्नकी सृष्टि अपने आप होती है, निद्वादोष करिकै भिन्न भासती है, वैसे यह जगत् अपना आप हैं, परंतु अज्ञान कारकै भिन्न भासता, झोन जागृत्ते सब अपना भासता है, तिसविषे रागद्वेषका अभाव होजाता है, जैसे चंद्रमा अरु चंद्रमाकी चाँदनीविषे भेद कछु नहीं तैसे आत्मा अरु जगतविषे भेद कछु नहीं, आत्माही जगतरूप हो भासता है । हे रामजी ! तू अपने अनुभवविषे स्थित होकार देख, कि सर्व ब्रह्मरूप है, जगत् कछु नहीं भासता, सर्वात्मा रूप है, अरु साध्य है, जैसे शरत्कालका आकाश शुद्ध होता है, तैसे आत्मसत्ता फुरणरूपी बादलते परम शुद्ध शांतरूप है, तिसविषे स्थित हुएते मान अरु मोहका अभाव हो जाता है, तृष्णा किसी पदार्थविषे नहीं रहती, प्रारब्धवेगकरि जो कछु आनि प्राप्त होता है तिसको भोगता है, आत्मदृष्टिकरि दुःखते रहित हुआ प्रत्यक्ष