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नास्तिकवादनिराकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५५३) तुझने जो पूछा है, ताते बहुरि कहता हौं, प्रथम तौ पुरुषका अर्थ सुन, कि पुरुष किसको कहते हैं ।। हे रामजी । यह जगत् नेत्रविषे स्थित नहीं, न श्रवणविषे है, न नासिका आदि इंद्रियविषे स्थित है, चेतन संविविषे स्थित है जगत्, सो चेतन संवितही पुरुषरूप है जिस पुरुषको तिसविषे निश्चय है, सो ज्ञानवान् हैं, तिसको द्वैतकलना नहीं फुरती, जो प्रत्यक्ष दृष्टि भी आती है, परंतु उसके निश्चयविषे नहीं होती है, जैसे आकाशविषे धूड भी दृष्ट आती है, परंतु स्पर्श नहीं करती तैसे ज्ञानवान्को द्वैतकलना स्पर्श नहीं करती, अरु जिस चेतन संविसाथ ऊरणेका संबंध है, तिसको जगतुका आकार भासता है, अरु जिस पुरुषकी संवितविषे देश काल क्रिया व्यका संबंध है सो कलंक दृढ हो रहा है, अरु अपने वास्तव अद्वैत स्वरूपके अभ्यासकार मार्जन नहीं करता, सो वास्तव चेतन आकाशरूप भी हैं, तौभी कलंककार वासनाके अनुसार जगत् तिसको आपते भिन्न भासता है, द्वैतभ्रम नहीं मिटता ॥ हे रामजी ! जो पुरुष ऐसा भी है, कि देहके इष्ट अनिष्ट प्राप्तिविषे सम रहता है, अरु आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों नहीं भासती तौ अज्ञानी हैं, आत्मसत्ता जाननेविना संसार तिसका निवृत्त नहीं होता, जब आत्मसत्ताका साक्षात्कार होवैगा तब सब भ्रम निवृत्त हो जावैगा ॥ हे रामजी ! यह पुरुष न जीव है, न ऊरना है, न शरीरके नाश होनेसे नाश होता है, यह पुरुप केवल चिन्मात्रस्वरूप है, अरु वासनाकार भ्रमको देखता है, अरु जो शून्यवादी हैं सो वृक्षपर्वत जडादिक योनिको पाते हैं, जो सदा अनुभव तिसको त्यागकर अपर कछु इष्ट जानते हैं, सो मूर्ख हैं, तिनको आत्मसुख नहीं प्राप्त होता, आत्माके प्रमादकार अहं त्वं अंतर बाहर आदिक शब्द भासते हैं, अरु जब आत्मज्ञान हुआ, तब सर्व शब्द आत्मारूप हो जाता है, अरु जिन पुरुषोंने आत्मअनात्मका निर्णय कार नहीं देखा, सो पुरुषविषे नीच हैं अरु जिन पुरुषोंने निर्णय कारकै आत्माविषे अहंप्रतीति, करी है, अनात्माका त्याग किया है, सो महापुरुष हैं, तिनको मेरा नमस्कार है, अरु जिसने अनात्माविषे आत्माको त्यागिकार अहंप्रतीति करी।