पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६६७

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(१५४८) योगवासिष्ठ । अरु हमको सुक्ष्म अणु होता है, तिनको वह पर्वतके समान भासताहै॥ हे रामजी ! स्वरूप सबका एक आत्मसत्ता है, परंतु भावनाकार भिन्न भासता है, अरु एक कीट है, सो बहुत सुक्ष्म है, जब वह चलता है, तब वह जानता है कि, मेरा गरुडकासा वेग है, उसको वही सत् हो रहा है, अरु वालखिल्यका अंगुष्ठप्रमाण शरीर है, तिनको वही बड़ा भासता हैं विराट्को वही अपना बड़ा शरीर भासता है, जैसी जिसको भावना होती है, तैसाही तिसको भासता है, मनुष्य देवता पशु पक्षी सबको अपना भिन्न भिन्न संकल्प है, जैसा संकल्प किसीको दृढ हो रहा है, तिसको तैसाही स्वरूप भासता है, जैसे मनुष्य राग, द्वेष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, क्षुधा, तृषा, हर्ष, शोक विकारकार आसक्त होता है, तैसे कीट पतंग पक्षी आदिको भी होते हैं, परंतु एता भेद है कि, जैसे हमको यह जगत् स्पष्ट रूप भासता है, तैसे उनको नहीं भासता, संसारी सब हैं, परंतु वासनाके अनुसार घटवत् भासते हैं, अरु दुःखका अनुभव स्थावर जंगमको भी होता है, जो किसी स्थानको अग्नि लगती है, उसविषे वृक्ष पाषाण जलते हैं, तब उनको भी दुख होता है, परंतु सूक्ष्म स्थूलका भेद है, जैसे अपर । जीवको शस्त्र प्रहार कियेते शरीर नष्ट होनेका दुःख होता है, तैसे वृक्षादिक को भी होता है, परंतु घन सुषुप्ति क्षीणसुषुप्ति स्वप्न जाग्रत्का भेद है, पर्वत पाषाणको सूक्ष्म जैसा दुःख होता है, वृक्षको पाषाणते विशेष होता है, परंतु स्पष्ट मान अपमानका दुःख नहीं होता; स्वकी नई होता है, अरु मनुष्य देवताको स्पष्ट रागद्वेष जायकी नाई होता है, काहेते जो जाग्रत् अवस्थाविषे स्थित हैं, अरु वृक्ष पाषाण आदिकको स्पष्ट दुःखका विकल्प नहीं उठता,जडता स्वभावविष स्थित है, अरु दुःख कहिये तो सबको होता है, अरु तू अपर आश्चर्य देख कि,कीट महादुःखी रहते हैं, जब मृतक होवें तब सुखी होवें, अरु अज्ञानकारिकै जो इस शरीरविषे आस्था हुई है, तिसको भी मरणा बुरा भासता, तौ अपर जीवको भला कैसे लगै ? हेरामजी! अपने स्वरूपके प्रमाद कारकै भय क्रोध लोभ मोह जरा मृत्यु क्षुधा तृषा राग द्वेष हुई शोक इच्छादिक विकारकी अग्निकार जीव जलते हैं, अत्मानेको