पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६६६

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परमार्थरूपवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१५४७) पूजाकर निवृत्त होते हैं, अपर जीव जो कीट पतंग पशु पक्षी आदिक हैं, तिनके दुःख कैसे निवृत्त होवैगे, सो कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जो वास्तवसत्ता है, तिसका नाम ब्रह्म है, अखंड है, अद्वैत है, तिसविषे कछु द्वैतका विभाग नहीं, परंतु तिसविष चित्त किंचन आभास कुरा है। सो ऊरणा नानात्व हुएकी नई स्थित भया है, वास्तव कछु हुआ नहीं, जैसे स्वप्नविषे स्वप्नसृष्टि भासती है, परंतु वास्तव कछु हुई नहीं, निद्रादोष कारकै भसती है, तैसे जाग्रतसृष्टि भी कछु वास्तव दुई नहीं, अज्ञानकारकै जीवको भासती है, वास्तवते सब ब्रह्मरूप है, अपने स्वरूपके प्रमाकारकै जीवत्वभावको अंगीकार किया है, तिस जीवत्वके अंगीकार करनेकार जैसा निश्चय करता है, अनामदेहादिकविषे आत्मअभिमान कारकै तैसीही गतिको पाता है; बहुवारि देश काल क्रिया दुव्यका संकल्प जैसा दृढ होता है, अनुभवसत्ताविपे तैसा हो भासता है, तिसविषे चार अवस्था कल्पित होती हैं, जैसी जैसी भावना होती हैं, तिसके अनुसार अवस्थाको अनुभव होता है, सो अवस्था कौन कौन हैं, सो श्रवण कर, एक घन सुषुप्ति है, दूसरी क्षीण सुषुप्ति है, तीसरी स्वप्नअवस्था है, चौथी जाग्रत है, अब इनके भेद सुन ॥ हे रामजी । पर्वत पाषाण जो हैं, सो घन सुषुप्तिविषे हैं, जैसे सुषुप्तिअवस्थाविधे कछु फुरता नहीं, जड़ीभूत हो जाता है, तैसे तिनको फुरणा कछु नहीं फुरता, घन सुषुप्तिविषे स्थित हैं, अरु वृक्ष क्षीण सुषुप्तिविषे स्थित हैं, जैसे क्षीण सुषुप्तिविषे कछु ऊरणा फ़रता है, तैसे वृक्षविषे भी ऊरणा होता है, ताते क्षीण सुषुप्तिविषे तिर्यग् जो पक्षी कीट पतंग जीव हैं, सो स्वप्नअवस्थाविषे स्थित हैं, जैसे स्वप्नविषे पदार्थ भासता है, परंतु दृढ समष्टि नहीं भासता है, तैसे इनको थोडा सूक्ष्म ज्ञान है, ताते स्वप्नअवस्थाविधे स्थित हैं, अरु मनुष्य देवता हैं, सो जाअनुरूप जगत्का अनुभव करते हैं ॥ हे रामजी ! यह चारौं अवस्था आत्माविषे स्थित हैं, अरु आत्मसत्ताहीविषे स्थित हैं सबका अप्रत्ययरूप आत्मा है, बड़ेका क्या अरु छोटेका क्या, तिसविषे जैसा संकल्प दृढ होता है तैसाही हो भासता है॥ हे रामजी ! हमको एक दिन व्यतीत होता है, अरु कीटको युगका अनुभव होतृाई,अरु उनके युगविष हमको एक क्षणका अनुभव होता है,