पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६३४

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पृथ्वीवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६, (१५१५) तिसके किसी स्थानविषे संवेदन चित्त अहं फुरा. अर्थ यह कि, मैं हौं, तिसके अहंभावके होनेकार आपको मैं सूक्ष्म तेज अणु जैसा जानत भया, तिस अणुविषे जो अहं फुरी तिसको तुमसारखे अहंकार कहते हैं। तिस अहंकारको दृढताते निश्चयात्मक बुद्धि फुरी, तिस बुद्धिते संकल्प विकल्परूप मन फुरा, तिस मनने आगे प्रपंच रचा, तिस मनविष देखनेका स्पंद फ़रा, तब चक्षु इंद्रिय भई, अरु जिसको देखने लगा, रूप दृश्य भई; बहुरि सुननेकी इच्छा ऊरी, तब श्रवण इंद्रिय हुई, तब शब्दही सुनत भई, बहुरि रस लेनेकी इच्छा भई, तब जिह्वा इंद्रिय भई रसको ग्रहण करने लगी, जब सुगधि लेनेकी इच्छा करी, तब नासिका इंद्रिय भई, अरु सुगंधिको ग्रहण करने लगी, बहुरि स्पर्श करनेकी इच्छा हुई, तब त्वचा इंद्रिय प्रगट भई, अरु स्पर्शको ग्रहण करने लगी। इसप्रकार ज्ञान इंद्रिय मुझको आनि फुरी, तिनविषे शब्द स्पर्श रूप रस गंध उदय हुए, तब मैं अपनैसाथ स्थूल वपुको देखत भया, जैसे पुरुष सूक्ष्मते उठिकार स्वप्न देखता है, तिसविषे अपना शरीर देखताहै, तैसे मैं देखता भया । हे रामजी ! जिसको मैं देखत भया सो दृश्य हुआ, अरु जिसका मैं देखता भयो सो इंद्रियां भई, अरु जब दृश्य ऊरणा हुआ, सो काल हुआ, अरु जहाँ हुआ, सो देश हुआ, अरु ज्योंकार हुआ, सो क्रिया हुई, इसप्रकार सब देशकाल पदार्थ हुए हैं, सो मैं तेरे ताई कहे हैं ॥ हे रामजी ! वास्तव न कोऊ देह है, न इंद्रिय है, न सृष्टि है, चित्तकलाविषे हुएकी नाईं दृष्ट आते हैं, जैसे स्वप्नकी सृष्टि भासती है, जब वह सृष्टि मुझको फुरी, तब पूर्व स्वरूप विस्मरण भया, जैसी सुषुप्तिविषे मुझको अपना स्वरूप विस्मरणकी नई होता हैं, तैसे मुझको विस्मरण हुएकी नई भासा, जैसे स्वप्नविषे जाग्रत् स्वरूपका विस्मरण होता है, जाग्रविषे स्वप्नस्वरूपका विस्मरण होता है, तैसे पूर्वके स्वरूपका सुझको विस्मरण भया, जब शरीर इंद्रियां मुझको अपनेसाथ भासीं, तिसविधे मैं अप्रत्यय कारकै शब्द ओंकार उच्चार किया, जैसे - बालक माताके गर्भते उत्पन्न होकर शब्द करता है, तैसे मैं ॐ शब्दका उच्चार किया, जैसे कोऊ पुरुष स्वप्नविषे उठता है, अरु शब्द करता है,